Sunday, July 21, 2013

दंतचियार ग़ज़ल

पत्थर पर सिर मारे जा
मन की खीझ उतारे जा

चुनने तक ही हक था तेरा
अब तो दांत चियारे जा

अपनी-अपनी ढपली सबकी
अपने राग उचारे जा

अंधी पीसे कुत्ता खाए
संसद के गलियारे जा

बहती गंगा डुबकी लेले
चैन से डंडी मारे जा

रामसनेही नाम रखा ले
सबकी खाल उतारे जा .

6 comments:

  1. पत्थर पर सिर मारे जा
    मन की खीज उतारे जा...वाह 'नावक के तीर' ऐसे ही होते होगे । बेहद सहज सटीक और और प्रभावी उद्गार ..।

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  2. अच्छी दांत चियारा रचना है :-)

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