Friday, June 14, 2013

कुछ ग़ज़ल जैसा

धुएं  की लकीर हवा में ठहरती कब तक
ज़िन्दगी दौर से ऐसे गुजरती कब तक

सुबह छुपा क्यों न लेती कोहरे में मुंह
बर्फ-सी धूप में आखिर सिहरती कब तक

अँधेरा घिर गया ! घिरना था , क्या हुआ
पकी-सी धूप मुंडेरी पे ठहरती कब तक

एक तू ही नहीं राह में और भी थे कई
मंजिल तेरा इंतज़ार और करती कब तक

सो गयी थककर तुझे आंखों में लिए
कोई रात जुगनुओं से संवरती कब तक

आज खुल ही गयी आखिर अपनी हक़ीकत
हँसी उधार की चेहरे पे उतरती कब तक   

2 comments:

  1. वाह! बहुत खूब..

    सो गयी थककर तुझे आंखों में लिए
    कोई रात जुगनुओं से संवरती कब तक
    ...बेहतरीन शेर है।.. मार्मिक एहसास।

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  2. माँगी हुई हँसी से मन का सिंगार कब तक । एक अच्छी और सच्ची रचना ।

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