Wednesday, November 23, 2011

विदाई.... एक व्यक्तिगत कथा

कहीं छोड़ आया हूँ
अपनी एक प्यारी-सी चीज
शाम के धुंधलके में
कोहरा ओढ़े दूर जंगल में
लांघकर शहर, गाँव, पहाड़ , नदियाँ .
मन उदास है, गहरा उदास
मन चुप है, निहायत चुपचाप
दुःख हो , ऐसा नहीं लगता
दर्द है , कुछ-कुछ प्रिय-सा.


सर्पीली सड़कों से गुजरते हुए
सुनाता रहा पहाड़ी लड़की का गीत
बालों में घुमाते हुए उँगलियाँ
बांटता रहा अतीत के किस्से
हिस्से-हिस्से खोलता रहा
मन के तमाम बंद कमरे
दिखाता रहा कोने-अंतरे एक-एककर
पोर-पोर बींधती रही आकुल तृप्ति .


स्मृति के निर्झर झरते रहे कलकल
अविकल ऊँचाइयों  से उतरते
खुल गयीं सब गांठें मन की
और फैल गयी चांदनी रात
किरण-किरण चीड के पेड़ों पर
बात करते, बात सुनते .


देह तपी थी सोना हो गयी 
मन कांपा था अर्घ्य की तरह
संस्कार सब छीज गए
रीत गया बूँद-बूँदकर अहम्
बची रह गयी बस एक कसक
खालीपन से भरी-भरी .


नदियाँ-पहाड़-जंगल सब पार किये
पार किया केशों का गझिन आकर्षण
देह का दीप्त दरिया
मन का मोहक आकाश
और छोड़ आया
अपना  एक हिस्सा
कोहरा ओढ़े जंगल में.


वापसी को मुड़े कदम कांपे
कांपा कहीं भीतर विश्वास
स्वयं के मज़बूत होने का
हिलते हाथों संग हिला
अधिकार का महीन आवरण
और उग आयीं पीठ पर एक जोड़ी आँखें.





  

4 comments:

  1. पीठ पर आँखों का उग आना बड़ी बात है सर जी
    माह मोह लेती है ये कविता।

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  2. देह तपी थी सोना हो गयी
    मन कांपा था अर्घ्य की तरह
    संस्कार सब छीज गये
    रीत गया बूंद-बूद कर अहम्
    बची रह गयी बस एक कसक
    खाली पन से भरी-भरी....

    ...बेहतरीन!

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  3. कविता की गहनता उस तिलिस्मी सौन्दर्य का आभास दे रही है -कभी इधर का तिलिस्म देखने भी आईये न >

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    From everything is canvas

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