Wednesday, April 13, 2011

पाखी वाला गीत

पाखी वाला गीत अकेले जब-जब गाया
आकुल मन की विह्वलता में तुमको पाया

 नाव किनारे से ज्यों छूटी 
टूटी नींद नदी के जल की 
हलकी-हलकी लाल किरण का 
आँचल ओढ़े संध्या ढलकी 
बनती-मिटती लहरें मन की प्रतिच्छाया  .

बूढ़ा सूरज चलकर दिनभर 
किरणों की गठरी कंधे पर
धीरे-धीरे पार क्षितिज के 
लौट रहा थककर अपने घर 
सुबह का भूला भटका, शाम हुई  घर आया .  

8 comments:

  1. बहुत सुन्दर गीत है।
    बरसों पहले की कोई साँझ उतर आती है मन में।

    ReplyDelete
  2. किरणों की गठरी और सूरज का थकना... बढ़िया.

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर गीत है। धन्यवाद|

    ReplyDelete
  4. एक दम ट्रेड मार्क है अनुज! सांझ को कनवास पर और भावनाओं को ह्रदय पर अंकित कर दिया!!

    ReplyDelete
  5. सांझ का खूबसूरत चित्रण ...दिल को छू गया , आकुल मन को संध्या में सुकून मिला...

    ReplyDelete
  6. मन में साँझ सी बसा देने वाला यह गीत बहुत ही सुन्दर है।

    ReplyDelete
  7. सूरज बुढ़ा गया तो उसका थकना लाजिम ही है, संध्या का सही चित्र उकेरा है प्रोफ़ैसर साहब। भई वाह।

    ReplyDelete