Friday, December 17, 2010

अकेले में कुछ यूँ ही....

एक मधुगंध बींध जाती है पोर-पोर
भोर की उजास भर कसकता है मन
कानों में जब घोल जाती है मधुर ध्वनि
पायल की एक कोई अल्हड छनन
     यादों की तनी-तनी चादर पर सलवट-सी
     छोड़ चली जाती है अक्सर पुरवाई
     दबी-छिपी बातों को खोल-खोल देती है
     ऊबी-ऊबी थकी-थकी बोझिल तन्हाई
कुशा के कटीले वन चुभते हैं देर तलक
भीग-भीग आते हैं पागल नयन
     पेड़ों से पत्तों के टूट-टूट जाने की
    टीस ज्यों हवाओं में, ऐसी चुभन
    राहों में धूल भरे पांवों की कदमताल
    मंजिल को पाने के झूठे जतन
निशा के अँधेरे में खिलते हैं झूठ-मूठ
आस के नशीले और छलना सुमन
    समय छोड़ जाता है चिह्न कई हर ओर
    और आंक जाता है अपने चरण
    रीत-रीत जाती है चाम की मशक किन्तु
    बार-बार पानी का करती वरण
खंड-खंड जीवन का योग है सिफ़र और
गिने-चुने उपलब्ध केवल चयन.

4 comments:

  1. रजनीकांत जी!
    क्या कहूँ इस कविता के बारे में, इतने कोमल भावों को आपने उतने ही कोमल शब्दों में इस कदर पिरोया है कि पढते समय लगता है जैसे जलतरंग बज रहा है. हर बार की तरह मुग्ध करती कविता!!
    काश, मैं ऐसी कविता लिख पाता कभी!

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  2. अति सुन्दर।

    @ खंड-खंड जीवन का योग है सिफ़र और
    गिने-चुने उपलब्ध केवल चयन.

    पुनर्संयोजित करेंगे इन पंक्तियों को। लयभंग सा लग रहा है मुझे।

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  3. रीत-रीत जाती है चाम की मशक किन्तु
    बार-बार पानी का करती वरण
    खंड-खंड जीवन का योग है सिफ़र और
    गिने-चुने उपलब्ध केवल चयन

    प्रोफ़ैसर साहब, खूब लिखते हो। सच कहूं तो कमेंट नहीं सूझता बहुत बार।

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  4. रजनीकांत जी, आपकी शब्‍दयोजना कमाल की है। मन को भा गयी।

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    छुई-मुई सी नाज़ुक...
    कुँवर बच्‍चों के बचपन को बचालो।

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