Sunday, May 30, 2010

एक प्रेमगीत

देह बांची नित्य मैंने वेदमंत्रों की तरह पर
उपनिषद के ब्रह्म-सी तुम दूर ही होती रहीं 
मैं अर्थ की गहराइयों से शब्द की सीमा तलक
भटका किया हर रोज लेकिन तुम सदा खोती रहीं.
                          देह ने जाना मगर बस देह को
                          संदेह ने जाना मगर संदेह को
                         यूँ तो हथेली भीग आयी नाम भर से
                         किन्तु जाना स्नेह ने ना स्नेह को
उम्र बीती मन से मन को जान पाने की ललक में
साँस , गति, पहचान , कोशिश व्यर्थ सब होती रहीं. 

2 comments:

  1. रम्य कविता ।
    तो सोचना होगा कि क्या जाना जा सकता है मन से मन को ?
    एक पन्क्ति याद आ रही है --"दीठी से टोह कर नहीं मन के उन्मेष से उसे जानो , उसे पकड़ो मत उसी के हो लो ! "

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  2. आप मुझे अपने परिमार्जित संस्करण लगने लगे हैं। यहाँ से बहुत सीखें मिल रही हैं।

    @ यूँ तो हथेली भीग आयी नाम भर से

    वाल्मीकि याद आ गए। प्रेम का यह स्वेद एपीसोड उनके यहाँ बहुत जगहों पर मिलता है।

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