Sunday, May 16, 2010

हाशिया

अभी जितना कहा है
और उससे भी कम जितना लिखा है
और छोड़ दिया है
शब्द, वाक्य, अर्थ की पोटलियों में
इधर-उधर
मेज-किताब-अख़बार
सब कहीं भटकने के लिए
उससे कहीं ज्यादा- बहुत ज्यादा
रह गया है
टकने से-
किसी कमीज़ पर बटन बन,
छलकने से-
पवित्र अर्घ्य-सा अंजुरी से,
दहकने से-
भूख या प्यास की तरह
या फिर कसकने से-
हृदय के किसी अज्ञात अतल में.

हाशिया छोटा ही सही
बदल सकता है
पन्ने की इबारत
पूरी-की-पूरी
बिना दावा किये ,
दे सकता है
अर्थहीन को अर्थ
या अनर्थ.

वस्तुतः
जो कुछ भी रह गया है
कहीं कुछ होने से
मेरी ही तरह हाशिये  पर है.

   

4 comments:

  1. "हाशिया छोटा ही सही
    बदल सकता है
    पन्ने की इबारत"
    .... बेहतरीन!!
    शुभकामनाएं......

    ReplyDelete
  2. शब्द, वाक्य, अर्थ की पोटलियों में
    इधर-उधर
    bahut khoob

    ReplyDelete
  3. @
    रह गया है
    टकने से-
    किसी कमीज़ पर बटन बन,
    छलकने से-
    पवित्र अर्घ्य-सा अंजुरी से,
    दहकने से-
    भूख या प्यास की तरह
    या फिर कसकने से-
    हृदय के किसी अज्ञात अतल में.

    कमाल की पंक्तियाँ !

    ये हाशिये बड़े पाजी होते हैं। खुद छिद कर अर्जियों को फाइलों में दफन कर देते हैं।

    ReplyDelete
  4. अन्तिम पंक्तियाँ बहुत ही सशक्त है। अनछुए को स्पर्श करती अच्छी कविता।

    ReplyDelete