Saturday, May 15, 2010

कलफ़ लगी औरतें

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कलफ लगी साड़ियाँ
सरसराती हैं नफासत से
उठते-बैठते-चलते ;
तुडती-मुडती-सिकुड़ती हैं
मोड़-दर-मोड़
भीतर-बाहर हर ओर .

अक्सर निकाली  जाती हैं
इस्तिरी -बेइस्तिरी  
पार्टियों-मेलों-सम्मेलनों में
रेडीमेड का लेबल लगाकर .

कलफ लगी साड़ियाँ
तकिये के नीचे नहीं तहातीं
पाजामे, गमछे या लुंगी की बगल में
कलफ लगी साड़ियाँ
हैंगर में टंगती हैं
कोट, पैंट , टाई के बराबर
टाईट .... एकदम कड़क .

कलफ लगी साड़ियाँ
अक्सर खुद नहीं जान पातीं
बढती सलवटें
दिन-महीने-साल
जो बनाते हैं उनपर .
वे तलाशती हैं नए हैंगर
नए सिरे से लटकने के लिए
हर बार.... आखिरी बार !

कलफ लगी साड़ियाँ
पोंछा नहीं बनतीं
टूट जाती हैं अक्सर
तार.........तार.......
कलफ टूटते - न टूटते .
 

8 comments:

  1. बेहतरीन ,नए बिम्बों के साथ लिखी रचना

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  2. पहली लाईन ही फड़कती हुई है और सम्‍पूर्ण कवि‍ता उसका अनुसरण्‍ा कर रही है।

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  3. कांत साहब, आप लिखते बहुत कम हैं, लेकिन नजरिया आपका एकदम हटकर है।
    कलफ़ लगी साडि़यों से नफ़ासत तो झलकती हैं, लेकिन महत्च तो सूती साड़ियां का ही ज्यादा है।
    बहुत खूबसूरत रचना।

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  4. वे तलाशती हैं नए हैंगर
    नए सिरे से लटकने के लिए
    हर बार.... आखिरी बार !
    भाई यह तो बहुत ही सुन्दर कविता है । इसका विस्तार तो इतना अधिक है कि यह अपने इस मामूली से लगने वाले बिम्ब में भी अर्थ को अनंत विस्तार देती है ।
    बधाई । आपकी और कवितायें पढ़ना चाहूंगा ।

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  5. bahut badhhiya rachna he ji.
    कलफ लगी साड़ियाँ
    तकिये के नीचे नहीं तहातीं
    पाजामे, गमछे या लुंगी की बगल में
    कलफ लगी साड़ियाँ
    हैंगर में टंगती हैं

    pasand aai panktiya.

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  6. शरद कोकास जी नहीं पहुँचे होते तो मुझे आश्चर्य होता। उनकी बात मेरी बात।

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