Sunday, May 9, 2010

लाल सूरज

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तुम देहरी पर दीप रखो- न रखो
अँधेरा घिरेगा ही
सघन या विरल ,
सपने छीजने लगें तो यही होता है--
रात बांसुरी नहीं बजाती ,
चाँद बच्चे नहीं बहलाता ,
सितारे जंगल में भेज देते हैं
भटके हुए बटोही को
और मूर्तियाँ मुस्कराने लगती हैं
श्रद्धावनत मस्तकों की मूर्खता पर.
आस्था का संकट
चरणामृत बाँटने से नहीं मिटता .

गिरने दो कलश
धूल- धूसरित हों कंगूरे
कालजयी महलों   को पता तो चले
समय के बदल जाने का.

धक्का दो
धराशायी हों वटवृक्ष;
डालियाँ काटो
तने को चीरो
पोर-पोर खंगालो
बाकी न रहे कोई कोना
ढूंढो  एक स्वस्थ बीज
और रोप दो वहीँ;
फिर प्रतीक्षा करो
सपनों के अंकुरित होने की .

सूर्य रक्त वर्ण होता है
रौशनी फूटती है
सूर्य रक्तवर्ण होता है
रात हो जाती है
नया युग चुप-चाप नहीं आता  .
 

7 comments:

  1. हाँ बहुत कुछ होता है ..जो कवि की लेखनी बेहतर बयान करती रहती है , ये कला सब को नसीब नहीं होती ।

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  2. बहुत सुन्दर रचना। युग परिवर्तन अवश्यम्भावी है।

    आभार।

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  3. sahi kaha sab apne aap nahi hoga...hame uthna hi hoga...

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  4. मुक्तिबोधी कविता। धूमिल के छींटे। कहीं कहीं गोरख पाण्डेय सी मार।

    @ सपने छीजने लगें तो यही होता है--

    सोच रहा हूँ पाश अगर इस कविता को पढ़ते तो क्या कहते?
    शायद बड़े ग़ुलाम अली की तरह कहते "जीय रजा जीय"

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  5. बहुत ओजस्वी लिख डाले हैं सर जी ये तो आप !

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  6. नया युग चुपचाप नहीं आता!
    ज्ञान मिला!!

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