Sunday, May 2, 2010

यह मठ और गढ़ अब नहीं टूटेंगे

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यह मठ और गढ़ अब नहीं टूटेंगे
इसलिए नहीं कि
और मजबूत हो गयी हैं दीवारें
या कि और गहरी हो गयी है इनकी  नींव
बल्कि इसलिए,
मात्र इसलिए कि
बेसुरे बांसों क़ी चरमराहट हकला उठी है,
कामसूत्र क़ी पोथियाँ 
एडम स्मिथ क़ी अलमारियों से निकलकर 
खेत-खलिहानों में फडफडा रही हैं
विभिन्न मुद्राओं में
और कुदालों क़ी प्रतिबद्धता जंग खा गयी है. 

बिल्ली लाल हो या काली 
चालाक हो गयी है,
अब मलाई खाती है
और चूहों का व्यापार  करती है.

दीमक लगे चरखे से खेलते हैं
कुछ खाकी चूहे
और बिल्ली टकटकी बांधे खड़ी  है
होंठ चाटती.
घुनी हुई लाठी एक कोने में पड़ी है .

पथराये रहनुमा सिर ताने शान से 
कव्वे और कबूतर हगाते
चौराहों पर खड़े हैं 
और वह
जिसे तोड़ने हैं मठ और गढ़ 
चरणामृत  पीकर बेहोश पड़ा है. 

इसीलिए कहता हूँ---
यह मठ और गढ़ अब नहीं टूटेंगे.  


3 comments:

  1. प्रतीकों का बहुत सुन्दर प्रयोग किया गया है, बधाई स्वीकर करें।

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  2. सामयिक;प्रतीक अद्भुत ;शिल्प शानदार; विचारों से लैस;पर अंत आशावादी होना चाहिये..."

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  3. ग़जब!
    नरक का ऐसा चित्रण भी हो सकता है ।
    नहीं समझे ? समझ जाओगे :)

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