Thursday, March 17, 2011

मन मछेरा

फेंकता है जाल
बटोर लाता है तुम्हारी यादें
मन मछेरा रोज़ रात
रोज़ रात जागती है आँख 
आँख में जागते हैं दिन तुम्हारे प्यार के.

भीगती है ओस 
रात कसमसाती है
बात कुछ होती नहीं है
उनींदी चादरों की सलवटें
कुछ अचकचायी देखती हैं
देखती हैं धर गया है कौन
बीते दिन तुम्हारे प्यार के.

मन मछेरे 
कल सवेरे
फूटती होगी किरण उम्मीद की जब
ओस को करके विदा चुपचाप
दिन चढ़ने लगेगा
हम चलेंगे दूर सागर में 
हवा के पाल पर
ढूँढने अपने पुराने दिन किसी के प्यार के.


7 comments:

  1. प्रोफ़ैसर साहब, इस मन मछेरे के पास जाल नहीं महाजाल है, छोटी से छोटी याद को भी बटोर लाता है।
    और स्साला फ़ाईल डिलीट का ओप्शन भी नहीं है।

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  2. फेंकता है जाल बटोर लाता है तुम्हारी याद ....
    मन मछेरा ...
    जाल को अब तक मछलियों को फंसाते ही देखा है मगर यहाँ तो मन ही जाल बना यादों की मछलिया फंसाए बैठा है ..
    अनूठी बात !

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  3. वाह! बेहतरीन लिख है आपने..

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  4. मन मछेरा कितना विचित्र है, फिर भी कितना पहचाना।
    इतनी सुन्दर कविता के लिए आभार स्वीकारें।

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  5. सुन्दर कविता के लिए आभार|
    होली पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ|

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  6. अशोक वाजपेयी की कुछ कवितायं याद हो आयीं....

    .

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  7. बहुत आसानी से एक बहुत अच्छी कविता निकल आयी है ......

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