Sunday, February 28, 2010

अंतिम मुलाक़ात के दिन

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उस अंतिम मुलाक़ात के दिन
बादल छाये  रहे आसमान में
धूप रह-रहकर  उतरी धनखेतों में,
हवा डोलती फिरी उदास-सी
उफन आयी नदी के तीर-तीर,
फूल-फूल उठे कुशा के वन
ऊसर धूसर से दुधिया हुआ.

उस अंतिम मुलाक़ात के दिन
कुछ क्षण लौट-लौट आए
समय की लम्बी दूरियां तय कर,
कुछ शब्द बिखर-बिखर गए
हवा के आघातों से,
कुछ गीत घुमड़ते रहे कंठ में,
कुछ धुनें गूंजी निःशब्द ,
कुछ अर्थ सन्चरित हुए संकेतों से,
कुछ होंठ ढूंढ़ते   रहे शब्द
कुछ शब्द ढूंढ़ते रहे भाव,
आँखों ने तलाशे एकांत कोने
टिक सकें जहाँ सबसे बचकर.

और भी बहुत कुछ हुआ
उस अंतिम मुलाक़ात के दिन.
एक जोड़ी कदम उठे चलने के लिए,
एक जोड़ी हाथ जुड़े नमन की मुद्रा में,
एक जोड़ी आँखों ने देखा दूर सबके पार
और एक रुआंसा मन काँप गया
अंजलि में भरे अर्घ्य-सा.

उस अंतिम मुलाक़ात के दिन
एक लडके ने बिना देखे घुमा लिया चेहरा
एक लड़की  हैरान-सी देखती रही
 उस अंतिम मुलाक़ात के दिन.









  














1 comment:

  1. @ उस अंतिम मुलाक़ात के दिन
    बादल छाये रहे आसमान में
    धूप रह-रहकर उतरी धनखेतों में,
    हवा डोलती फिरी उदास-सी
    उफन आयी नदी के तीर-तीर,
    फूल-फूल उठे कुशा के वन
    ऊसर धूसर से दुधिया हुआ.
    ...
    उस अंतिम मुलाक़ात के दिन
    एक लडके ने बिना देखे घुमा लिया चेहरा
    एक लड़की हैरान-सी देखती रही
    उस अंतिम मुलाक़ात के दिन.

    अपनी कई कविताएँ याद आ गईं। अगर कोई गिरिजेश कविताएँ न रचे तो भी फर्क नहीं पड़ेगा तब तक जब तक Kant :) रच रहा है।

    अगर पहले पढ़ा होता तो उतार देता अपनी गद्य ग्राम गाथा में! साभार।
    आगे के लिए सोचता हूँ।

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