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फिर फगुनाई धूप ने, छेड़े मन के तार
प्रणय निवेदन कर रहा, बूढ़ा हरसिंगार.
तेरी चूनर रंग गयी, मेरी भी तू रंग
फिर दोनों मिल घोटेंगे, कबिरा वाली भंग.
फिर अलसाई सांझ ने, रोशन किये चिराग
पांवों में फिर बज उठे, कई बैरागी राग.
खेतों-खेतों लग गया, मस्ती का अम्बार
बूढ़ा बरगद छेड़ गयी, पछुवा मंद बयार.
मैना जोगन हो गयी, तोता बना फकीर
शंकर को भाने लगे, कामदेव के तीर.
सरसों पीली हंस पड़ी,जौ ने किया मज़ाक
पिय तेरा घर आएगा , बता गया है काक.
Thursday, February 25, 2010
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bahut sunder shabd,abhivyakti.badhai aapke lekhan aur Holi dono ki.
ReplyDeletedr.bhoopendra singh
काश! आप से परिचय होता जब अपने ब्लॉगों पर फागुन महोत्सव मना रहा था !!
ReplyDeleteअज्ञान हमेशा आनन्द नहीं होता।
पाँवों में बैरागी राग क्यों ?
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