पत्थर पर सिर मारे जा
मन की खीझ उतारे जा
चुनने तक ही हक था तेरा
अब तो दांत चियारे जा
अपनी-अपनी ढपली सबकी
अपने राग उचारे जा
अंधी पीसे कुत्ता खाए
संसद के गलियारे जा
बहती गंगा डुबकी लेले
चैन से डंडी मारे जा
रामसनेही नाम रखा ले
सबकी खाल उतारे जा .
मन की खीझ उतारे जा
चुनने तक ही हक था तेरा
अब तो दांत चियारे जा
अपनी-अपनी ढपली सबकी
अपने राग उचारे जा
अंधी पीसे कुत्ता खाए
संसद के गलियारे जा
बहती गंगा डुबकी लेले
चैन से डंडी मारे जा
रामसनेही नाम रखा ले
सबकी खाल उतारे जा .
पत्थर पर सिर मारे जा
ReplyDeleteमन की खीज उतारे जा...वाह 'नावक के तीर' ऐसे ही होते होगे । बेहद सहज सटीक और और प्रभावी उद्गार ..।
अच्छी दांत चियारा रचना है :-)
ReplyDeleteवाह!
ReplyDeleteवाह!!
ReplyDeleteठीके बात है !
ReplyDeleteNice Poem Shared by You. प्यार की कहानियाँ
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