वह युद्ध था अन्याय के
प्रतिरोध का प्रतिकार का
वह युद्ध दैवी-राक्षसी
प्रवृत्ति के वर्चस्व का
वह युद्ध विजयी और विजित
के पार भी जो व्याप्त था .
बस एक निर्णय
एक निर्णय ने बदल
डाली भविष्यत की दिशा .
रथचक्र की धुरी घिसी
रथ अनियंत्रित लडखडाया
लडखडाया विजयध्वज
श्लथ बन्ध कबरी का लिए
निज हस्त को धुरी किए
ली थाम ध्वजा धर्म की
केकेयसुता दशरथप्रिया ने
बस एक पल था, एक ही
निर्णय मरण-अमरत्व का
अस्तित्व की बाज़ी लगा
की मानरक्षा सूर्यकुल की
युद्ध बीता , जय देवों की
कृतज्ञ दशरथ ने कहा --मांगो प्रिये ,
कर शक्तिभर प्रयत्न , करूँगा पूरा
वर , मैं देवमित्र रघुवंशी अजनन्दन .
सोचती हूँ कितना है मादक
भ्रम दाता होने का
कुछ-कुछ घृणित भी
सर्वस्व समर्पिता को लालच वरदान का
चुप हो रहना केकयी का
कुछ नहीं , कुछ भी नहीं
बस श्रेष्ठता के दंभ का रेखांकन भर
वह वर , दंभ श्रेष्ठता का
नकार नारी के प्रेममय बलिदान का
पा समय प्रस्फुटित हुआ
विषकंद-सा करने विषाक्त
अबोध मन जीवन अनेक
बस एक पल एक निर्णय
दे गया अनगिन व्यथाएं .
सुनती हूँ सास कहा करती हैं
मिहिरवंश में प्यार
एक हथियार सदा वंचित करने को
नैसर्गिक अधिकार समर्पण का नारिसुलभ
तोल दिया जाता वरदानों की निर्जीव तुला में .
(भरत की पत्नी मांडवी की नज़र से रामकथा लिखने की कोशिश की थी कभी)