धुएं की लकीर हवा में ठहरती कब तक
ज़िन्दगी दौर से ऐसे गुजरती कब तक
सुबह छुपा क्यों न लेती कोहरे में मुंह
बर्फ-सी धूप में आखिर सिहरती कब तक
अँधेरा घिर गया ! घिरना था , क्या हुआ
पकी-सी धूप मुंडेरी पे ठहरती कब तक
एक तू ही नहीं राह में और भी थे कई
मंजिल तेरा इंतज़ार और करती कब तक
सो गयी थककर तुझे आंखों में लिए
कोई रात जुगनुओं से संवरती कब तक
आज खुल ही गयी आखिर अपनी हक़ीकत
हँसी उधार की चेहरे पे उतरती कब तक
ज़िन्दगी दौर से ऐसे गुजरती कब तक
सुबह छुपा क्यों न लेती कोहरे में मुंह
बर्फ-सी धूप में आखिर सिहरती कब तक
अँधेरा घिर गया ! घिरना था , क्या हुआ
पकी-सी धूप मुंडेरी पे ठहरती कब तक
एक तू ही नहीं राह में और भी थे कई
मंजिल तेरा इंतज़ार और करती कब तक
सो गयी थककर तुझे आंखों में लिए
कोई रात जुगनुओं से संवरती कब तक
आज खुल ही गयी आखिर अपनी हक़ीकत
हँसी उधार की चेहरे पे उतरती कब तक
वाह! बहुत खूब..
ReplyDeleteसो गयी थककर तुझे आंखों में लिए
कोई रात जुगनुओं से संवरती कब तक
...बेहतरीन शेर है।.. मार्मिक एहसास।
माँगी हुई हँसी से मन का सिंगार कब तक । एक अच्छी और सच्ची रचना ।
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