छूटना हमेशा ट्रेन की तरह नहीं होता
दौड़ते-दौड़ते, भागते-भागते
पटरी-दर-पटरी, सिग्नल-दर-सिग्नल
बदहवास
सब छोड़ देने की कोशिश में.
छूटना हमेशा केंचुल की तरह भी नहीं होता
धीरे-धीरे, रेंगते-रेंगते, सरकते
कुछ फर्क नहीं पड़ता जिससे
नयी-पुरानी खाल साथ-साथ
एक-दुसरे से जुड़ी-जुड़ी
लिथड़ती-लिथड़ती
छूटना केवल छूटने-सा होता है
जब डूब जाती है ज़मीन
डूब जाता है हौंसला
डूब जाती है अपने होने की हनक
बाँध की बढती ऊंचाई में
पानी के पसरते आयतन में
और मॉल की चकाचौंध रौशनी में
जब गर्दन पर रखा हो
भारी-भरकम पैर
और कहा जाता हो
साँस लो जोर से
और जोर से हँसते हुए
दूर टंगे मुआवज़े के
ऑक्सीजन सिलिंडर को देखकर
तब आप ही कहें
छूटना कैसा होता है
अपनी ज़मीन से...