Monday, December 26, 2011

हुसैन के घोड़े

मैं समझना चाहता हूँ
तुम्हारे होने का मतलब
मैं उलझना चाहता हूँ
हर उस चीज से जो तुम तक जाती है
मैं पकड़ना चाहता हूँ
तुम्हारे सोचने के तरीके को
कि विवाद घूम-घूमकर
क्यूँ चले आते थे तुम तक
कि कोई पहचान तुमपर चिपकती क्यों नहीं थी
कि वह जगह किसने बेंच खाई
गुंजाइश थी जहाँ खड़े होकर बात करने की
कि दीवारों के आर-पार या तो घुटन है या शोर
या तो साजिशें हैं या फिर चीख

तर्क करने की नहीं डरने की चीज है अब
मैं जो सोचना भी चाहूँ तो डर लगता है---
कोई पढ़ रहा है मेरे विचार
और हो रहा है आहत !

हुसैन, अच्छा है तुम्हारे घोड़े बेलगाम हैं
वे नहीं जानते लोहे का स्वाद
और ये बात लुहारों को अखरनी ही चाहिए
कि उनके हथौड़े , आग और चोट पर
हर बार भारी पड़ जाते रहे तुम्हारे घोड़े ।

  

6 comments:

  1. कुछ प्रश्नों के उत्तर मांगती हैं यह पोस्ट .....

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  2. लुहार रो रहे हैं बेलगाम घोड़ों को देखकर। वे कहते हैं कि जब तुम्हे लगाम पहनाने की कूबत ही नहीं तो नाहक हमें परेशान करते हो! क्या घास बनाकर मानोगे?

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  3. जुदा अंदाज़ और शैली में रची गई रचना

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  4. चाहने के बजाय करने का समय है !


    नेकी कर दरिया में डाल अरे अब तो बदल
    और जो तेरे मन में आये तुरंतै कर डाल||
    ~दुनाली फतेहपुरी

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  5. दौड़ा दिया आपने अस्तबल से बिना लगाम घोड़ो को :)

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  6. घोड़े अमरत्व पा गये है ...

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