काले बादल आ गए , पानी का घट साथ
जाने किसने क्या कहा, गीली हो गयी रात.
डूबी क्यारी धान की, पानी बढ़ा अपार
हंसिया बैठा सोचता , कैसे कटे कुआर .
धरती ने कल कर दिया, सूरज से परिहास
गुस्से में वह रूठकर , ले बैठा संन्यास .
हर पनघट से कह गयी , पुरवा यह सन्देश
धूप बिचारी जा रही , कुछ दिन को परदेश .
धानी चूनर दे गयी , धरती को बरसात
बादल भी दिल खोलकर , बरसा सारी रात.
संबंधों की डोर में , बंधा है सब संसार
बादल आया पाहुना , पपीहा करे पुकार .
वक़्त-वक़्त की बात है, अजब वक़्त की चाल
नदिया से मिलने चला , सूखा तुलसी ताल.
आदर्शों के देश में , संघर्षों की बात
चंदा की अठखेलियाँ , पानी भरी परात .
Tuesday, August 10, 2010
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इधर हाल के वर्षों में इतने सुन्दर दोहे किसी ने लिखे हों , मैंने नहीं पढ़े ( अपनी पढ़न-सीमा के साथ यह बात कह रहा हूँ ) | दोहों में जहां एक ओर शास्त्रीय कसाव है , मात्रा - विधान चाक-चौबंद है , वहीं दूसरी ओर भावों का काव्य-सुलभ सहज-उच्छलन भी | आपका कवि कर्म सराहनीय है |
ReplyDeleteदोहे लोकप्रियता में उर्दू के 'शेरों' से ज्यादा प्राचीन और जन-व्यापक रहे हैं | बदले हुए आधुनिक समय में हिन्दी रचनाशीलता ने इस काव्यरूप हो उतना नहीं निखारा जितना उर्दू के शायरों ने शेरों को | परिणामतः दोहे वर्तमान में कम लोकप्रिय हुए | सुखद आश्चर्य होता है जब कोई कवि पारंपरिक काव्य-रूप को ऊर्जा-स्फूर्त करके प्रस्तुत करता है , पुनर्नवा करता है | अपने समय में नागार्जुन ने किया - '' जली ठूठ पर बैठकर , गयी कोकिला कूक / बाल न बाका कर सकी , शासन की बन्दूक // '' | निश्चित रूप से आपने इसी तरह का प्रयास किया है |
आपके दोहों में सुन्दर बिम्ब हैं ! सुन्दर भाव-संहति है ! नयापन है ! कहने का बांकपन है !
उस दिन को अगोर रहा हूँ जब आपके ब्लॉग की पिछली कविताओं को देख जाऊं | इस दृष्टि से मेरे कुछ चयनित ब्लोगों में आपका भी एक ब्लॉग है | जल्द ही यह कार्य करूंगा | इन प्यारे दोहों के लिए पुनः बधाई !
अमरेन्द्र जी इतना ढेर सारा कह गए। अब मैं क्या कहूँ?
ReplyDeleteरजनी कांत जी आखिरी बार दोहा हम पढे थे निदा फाजली साहब का लिखा हुआ, लेकिन आप्का दोहा सब पढने के बाद हम भी कहने पर मजबूर हो गए है कि बरसों बाद असली दोहा का असली आनंद आया है...
ReplyDeleteजय हो!
ReplyDeleteहर दोहा अतिउत्तम है...मन बहुत प्रसन्न हुआ इन्हें पढ़ के. ऊपर गुणी जनों ने सब कह ही दिया है.
धरती ने कल कर दिया, सूरज से परिहास
गुस्से में वह रूठकर , ले बैठा संन्यास .
मुग्ध हूँ...असीम आनंदित
एक से बढ़ कर एक दोहा! पढ़ कर मज़ा आ गया!! हर दोहा संग्रहणीय और उदधृत किये जाने योग्य!!!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर...
ReplyDeleteखूब. कैलाश गौतम याद आ गए.
ReplyDeleteजो कुछ अमरेन्द्र जी ने कहा उसमें सूर्यभानु गुप्त जी की यह पंक्ति जोड़ना चाहता हूँ "खेल मौसम भी खूब करता है..छींटे आते हैं मेरे अंदर तक ..मेंह बाहर मेरे बरसता है"
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भाई जी आपकी कलम की तो दाद देनी पडेगी