Monday, November 29, 2010

ओबामा रोज-रोज थोड़े ही आता है

तो बात तय हो गयी है--
खतरनाक है सपने देखना भूखे पेट
खायी-अघाई दुनिया में.
जल-जंगल -ज़मीन कोई शर्त नहीं हैं
कोई शर्त नहीं हैं बोली-पहचान-पहनावा
जीते जाने की सभ्य होकर .
बाज़ार घर नहीं हो सकता
मुनाफे का गणित यही कहता है
घर बाज़ार में बदले यह सम्भावना है
प्रबंधन-क्षमता के विकास की
बेटा पल्टू, नाच देख, डबलरोटी खा, घर जा
ओबामा रोज़-रोज़ थोड़े ही आता है.

यह बात भी तय हो गयी है
रोने और रोने में अंतर होता है
अपनी-परायी दुनिया में
आंसुओं का स्वाद मायने नहीं रखता
आँखों का रंग देखा जाना चाहिए
जिंदगी आदत होनी चाहिए, मर्ज़ी नहीं
ब्रांड वैल्यू के लिए ज़रूरी है यह
बेटा टिल्ठू , और झुक जा, ठीक से कोर्निश बजा, मत लजा
ओबामा रोज़-रोज़ थोड़े ही आता है.

अब, जबकि तय होने की सभी चीज़ें तय कर ली गयी हैं
अगर तम्हारी भूख का आकार तय नहीं है
अगर तुम्हारे घावों की संख्या तय नहीं है
अगर तुम्हारी  मौत का तरीका तय नहीं है
तो इसलिए  सिर्फ इसलिए
कि इनसे मुनाफे का हिसाब अभी ज़ारी है
कि इनसे उनके सभ्य होने के तरीके में कोई खास फर्क नहीं पड़ता
और अभी तय करने की बारी उनकी है.
बेटा लल्टू, दंडवत कर, पसर जा, मुस्कुरा
ओबामा रोज़-रोज़ थोड़े ही आता है.

 


Wednesday, November 24, 2010

उपलब्धि

मैं समय के अनंत पथ पर
पड़ा हुआ था
अड़ा हुआ था
अपार दिक का एक कोना छेंककर.
आंधियां मैंने सहीं
दम कोटि तूफानों ने तोड़े
वज्र छाती पर मेरी
मेघ रीते कोटि मुझपर
घाम में जलता रहा मैं
चन्द्रमा की रजत किरणों ने
सुलाया औ जगाया
क्षण रहा मैं युग हुआ फिर
युग बदलते कई दिखे,
मैं नहीं कहता--
नहीं मैं टूटता-जुड़ता रहा,
पर आज तूने , आज मुझ पर
हथोडियों से चोट मारी
छेनियों से छील डाला
तोड़ डाला रूप मेरा
गढ़ दिया है आज मुझको
प्रेमिका की मूर्ति में
पा नहीं जिसको सका तू
कोशिशें कर उम्र भर.

देखते हैं आँख भर सब
स्वर प्रशंसा में डुबोते--
'कल्पना साकार है'
'यह कालजेता कृति अनोखी'
'कला का अद्भुत नमूना'
'गीत प्रस्तर  में लिखा'
'न भूतो न भविष्यति'
--गर्व से माथा ताना
अनुभूति प्रखर अहम् की !
पर कलाकार ! यह सौन्दर्य साकार
यह प्रतिभा का चमत्कार
सब तेरा है ?
मात्र तेरा ही ?
तूने मुझको देख लिया, पहचान लिया
आकार दिया, साकार किया
क्या मात्र इसी से सब कुछ तू ?
और युगों से तिल-तिल जलकर
बरखा-गर्मी-सर्दी सहकर
तूफानों की ठोकर खाकर
बचा रहा मैं रहा सहेजे
सपने अपने मन के
अपनी सब संभावनाएं
क्या इनका कुछ मोल नहीं ?

पर कलाकार ! तू क्या समझेगा !
तेरे कानों को भाती है
वाह-वाह की भाषा
तेरी आँखों में तिरती है केवल एक अभिलाषा--
उपलब्धि !

तेरा मैं मुझको ले डूबा
युग-युग का तप नष्ट हुआ
मैं आज तुझे उपलब्ध हुआ.



Saturday, November 20, 2010

गद्य गीत

शरद की गुनगुनी धूप और ग्रीष्म की पुरवा-से लगते हो तुम.
महसूस तो करता हूँ तुम्हें, सम्पूर्ण शक्ति लगाकर भी छू नहीं पाता .
सम्पूर्ण समर्पण कर भी देख लिया , एकाकार न हो सके हम.
यह लुका-छिपी का खेल कब तक चलेगा ?
टक बांधे खड़े हैं हम और तुम आवाज़ लगाकर कभी इधर से तो कभी उधर से, छिप जाते हो.
मेरे गीत, यह छंदों का बंधन इतना कड़ा क्यों है !

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सुनो, मेरी तस्वीर अब भी बेजान है.
दे सकोगी एक मुट्ठी भर मुस्कान उधार  ?
एक मुट्ठी आकाश मेरे पास है, एक तुम मिला दो.
क्या हम दोनों के लिए इतना काफी न होगा !

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रिक्तता से पूर्ण आँचल में सँभालने को तुमने स्मृतियाँ दीं , यही क्या कम है.
प्यासा तो था पहले भी पर जल से अनभिज्ञ .
जलपात्र दिखाकर प्यास का बोध तो तुमने ही कराया.
मेरे सागर ,  जल तुम्हारा था तुम ले गए.
हमारे पास प्यास ही सही अपनी तो है.
पराये मेघों का मातम करें या सूखे होंठों के लिए ओस तलाशें, तुम्हीं कहो.

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एक बार हाथ बढाकर छू लूं तुम्हें , मन कहता है.
जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो जाएगा.
तुम पारस हो , इसमें तनिक संदेह नहीं.
डरता हूँ , मैं ही लौह न हुआ तो ?

Tuesday, November 16, 2010

UPSC 1998 : असफलता का गीत

रह गया है हाथ खाली अब चलो घर को चलें
कह रहा है मन सवाली अब चलो घर को चलें
        थक गयी पांवों की हिम्मत
        खो गयी मंजिल की हसरत
        ज़िन्दगी कल थी रवानी
        आज केवल एक आदत
ज़िन्दगी से जीतने की हमने खायी थी कसम
हर कसम है तोड़ डाली अब चलो घर को चलें
         हर गली सपना बिखेरा
         बो दिया हर सू सवेरा
         क्या पाता था लक्ष्य ऐसे
         छोड़ देगा साथ मेरा
किसकी-किसकी आस की हों अर्थियां जाने सजीं
और अपनी काँध खाली अब चलो घर को चलें.

Monday, November 8, 2010

अंतिम पत्र : विदा, मनमीत !

उम्र की इस सांध्य-वेला में मुझे आवाज़ देकर
चाहती हो क्यों भला तुम बेवज़ह बदनाम होना
अब न वो शोला रहा है धूम भी बाकी नहीं है
हर नया झोंका हवा का ले गया कुछ छीनकर
और फिर वैसे भी अपने खण्डहर सम्बन्ध में
ढूंढना कोई खज़ाना मात्र कोरा भ्रम ही है
भग्न तुम हो भग्न मैं हूँ बस यही एक सत्य है तो
क्यों किसी सम्पूर्ण की चाहत हमें भटकाए फिर
कर लिया स्वीकार मैंने चिर अधूरापन, सुनो
क्या तुम्हें लगता है अब भी रेत में जल पा सकोगी
रख लिए एकादशी के व्रत अनेकों, बस करो
अब शाम को तुलसी के आगे और मत रखना दिया
अब नहीं उजले पखेरू की धवल पाँखों में मुझको
दीखतीं पल भर न जाने क्यों तुम्हारी उँगलियाँ
अब किसी के हाथ की तकदीर वाली रेख में
नाम अपना देखने की लालसा उठती नहीं है
अब किसी आषाढ़  के बादल से मेरी दोस्ती
नाम कोई ख़त तुम्हारे रोज लिखवाती नहीं है
अब न ये पुरवाइयां मजबूर करतीं गुनगुनाऊं
गीत जो मैंने लिखे थे मौन रातों जागकर
अब कभी कोई अचानक नाम जब लेता तुम्हारा
बन्द आँखों सोचता हूँ लग रहा है सुना हुआ
अब किताबों के मुड़े पन्ने न मुझको बांधते हैं
अब न आती है हंसी किस्से पुराने यादकर
चाहती हो लौट आऊं दूर लेकिन आ गया हूँ
वेदना के लोक अनगिन डूबकर कुछ लांघकर
ठूंठ है इस ठूंठ को सम्बन्ध का मत नाम दो
फूल खुशियों के उगेंगे और मत पालो भरम
झुक रहा है शीश पर उपलब्धियों का आसमान
उठ खड़ी हो जाओ तुमको आज पाना है अनंत
मुट्ठियाँ बांधो कि तुमको बांधनी है रौशनी
और करना है प्रकाशित धूममय संसार को.

Monday, November 1, 2010

माँ स्वेटर बुन रही है

ऊन में उलझी सलाई
डोलती संग-संग कलाई
बुन रही है स्नेह-पूरित
छांह ममता की .

              ठण्ड कुछ चुभने लगी है
              देह पर उगने लगी है
              धूप की सीली छुवन अब
              अनमनी लगने लगी है

 शीत ने जब कंपकंपाया
माँ की आँखों से छिपाया
दुःख सहेगी थक न जाये
बांह ममता की .

                बुन रही है सुख सुनहरे
                भूत के सब दंश गहरे
                काढती है फूल-पत्ते
                मुस्कराहट से भरे

छान दी है कल्पना
आशीष की ज्यों अल्पना
हर सलाई बढ़ रही है
चाह ममता की.

                   बुन रही  है ज्ञान सारा
                   गुन रही अपना सितारा
                   बांधती फंदे बनाकर
                   भाग्यसर का नीर खारा

बुन रही है गर्म स्वेटर
शीत से खुद काँपकर
पा सका है कौन आखिर
थाह ममता की.....  .