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सुनो अनु!
ऐसा क्यों होता है
तुम अपने लिए चुनती हो दिन
और रात मेरे हिस्से आती है .
एक अलसाई सुबह
तुमने चुना था प्रेम
मैं बेचैन हो उठा.
एक खड़ी दोपहर
तुमने चुना यथार्थ
मैं दिग्भ्रांत हो उठा.
फिर, आज इस ऊदी शाम
तुमने चुना है जीवन
मैं पथरा रहा हूँ.
सुनो अनु !
यह समर्पण , समझौता या सदाशयता नहीं
चयन का अधिकार है तुम्हारा
जिसे स्वीकार मैं करता हूँ .
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waah bahut sundar...
ReplyDeleteसुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण!
ReplyDeletekya kahne. good hai ji good.
ReplyDeletehttp://udbhavna.blogspot.com/
मनमर्जी।
ReplyDeletekhoobsuuat.
ReplyDeleteनायाब
ReplyDeleteKhoobsoorat...Har ek pankatiyon me hai ik meethee khushboo..
ReplyDeleteऐसे ही अनूठी रचनाये रचते रहिये हम पढ़ रहे है
ReplyDeleteअंतिम 4 पंक्तियाँ अनावश्यक लगीं। हो सकता है कि आप की रचना भावभूमि मेरी समझ से अलग रही हो।
ReplyDeleteईको तबा हींन। (नहीं समझे ?)
कोई बात नहीं।
:)