तुमने कब कहा मुझसे
तुमको चाँद चाहिए
तब तो नहीं, जब
अंजलि में जल ले मैंने कहा-
कुछ भी मांग लो , मिलेगा .
तब तो तुमने यूँ ही नचाये
हीरे की कनी-से नैन
पलकें झपकाईं
और मेरे हाथ का जल ले लिया ,
शीश पर चढ़ाया , कहा ---
मैं संकल्प हूँ ,
तुमने किया है ,
कहो, किसको दोगे !
मैंने कहा -- समय को देता हूँ,
मैं तुम्हें समय को देता हूँ .
आज बरसों बाद
समय के पीछे चलते एकाकी
तुम्हें देखता हूँ--
तुम्हारे हाथों में चाँद है
छोटा-सा, नन्हा-सा, रुई के फाये-सा
बंद मुट्ठियों में समय बांधे.
सोचता हूँ
तुमने कब कहा
तुमको चाँद चाहिए....
..या...शायद ...कहा था
जब मौन ने बोलना नहीं सीखा था
और अलकें अभी संकल्प-जल भीगी हुई थीं ,
तुम देवी हो-- मैंने कहा था ,
तुम शक्ति हो , धरा हो ,
धारा हो करुणा की ,
स्नेह हो, पवित्रता हो--
यह सब मैंने कहा था.
और तब
हाँ, शायद तभी
तुमने कहा था --
मुझे चाँद चाहिए
मेरा अपना निजी चाँद.
Thursday, May 27, 2010
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बहुत उम्दा भावपूर्ण अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteमुझे चाँद चाहिए
ReplyDeleteमेरा अपना निजी चाँद.
निजता ही समाप्त हो चुकी है और समय सबसे कीमती हो गया है बहुत सुन्दर रचना
वाह कांत साहब,
ReplyDeleteसदियों से जो समर्पण औरतें कब्जाये बैठी थीं, आपने उसमें सेन्ध लगा ली है। बहुत खूबसूरत लगी आपकी रचना।
आभार।
@ तब तो नहीं, जब
ReplyDeleteअंजलि में जल ले मैंने कहा-
कुछ भी मांग लो , मिलेगा .
तब तो तुमने यूँ ही नचाये
हीरे की कनी-से नैन
पलकें झपकाईं
और मेरे हाथ का जल ले लिया ,
शीश पर चढ़ाया , कहा ---
मैं संकल्प हूँ ,
तुमने किया है ,
कहो, किसको दोगे !
लगा जैसे शरच्चन्द्र के किसी उपन्यास में उतर गया होऊँ ।
और अंत तक आते आते स्तब्ध कर दिया आप ने !