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तुम देहरी पर दीप रखो- न रखो
अँधेरा घिरेगा ही
सघन या विरल ,
सपने छीजने लगें तो यही होता है--
रात बांसुरी नहीं बजाती ,
चाँद बच्चे नहीं बहलाता ,
सितारे जंगल में भेज देते हैं
भटके हुए बटोही को
और मूर्तियाँ मुस्कराने लगती हैं
श्रद्धावनत मस्तकों की मूर्खता पर.
आस्था का संकट
चरणामृत बाँटने से नहीं मिटता .
गिरने दो कलश
धूल- धूसरित हों कंगूरे
कालजयी महलों को पता तो चले
समय के बदल जाने का.
धक्का दो
धराशायी हों वटवृक्ष;
डालियाँ काटो
तने को चीरो
पोर-पोर खंगालो
बाकी न रहे कोई कोना
ढूंढो एक स्वस्थ बीज
और रोप दो वहीँ;
फिर प्रतीक्षा करो
सपनों के अंकुरित होने की .
सूर्य रक्त वर्ण होता है
रौशनी फूटती है
सूर्य रक्तवर्ण होता है
रात हो जाती है
नया युग चुप-चाप नहीं आता .
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हाँ बहुत कुछ होता है ..जो कवि की लेखनी बेहतर बयान करती रहती है , ये कला सब को नसीब नहीं होती ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना। युग परिवर्तन अवश्यम्भावी है।
ReplyDeleteआभार।
sahi kaha sab apne aap nahi hoga...hame uthna hi hoga...
ReplyDeleteअच्छा लिखा है आपने.
ReplyDeleteक्या हिंदी ब्लौगिंग के लिए कोई नीति बनानी चाहिए? देखिए
मुक्तिबोधी कविता। धूमिल के छींटे। कहीं कहीं गोरख पाण्डेय सी मार।
ReplyDelete@ सपने छीजने लगें तो यही होता है--
सोच रहा हूँ पाश अगर इस कविता को पढ़ते तो क्या कहते?
शायद बड़े ग़ुलाम अली की तरह कहते "जीय रजा जीय"
बहुत ओजस्वी लिख डाले हैं सर जी ये तो आप !
ReplyDeleteनया युग चुपचाप नहीं आता!
ReplyDeleteज्ञान मिला!!