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कलफ लगी साड़ियाँ
सरसराती हैं नफासत से
उठते-बैठते-चलते ;
तुडती-मुडती-सिकुड़ती हैं
मोड़-दर-मोड़
भीतर-बाहर हर ओर .
अक्सर निकाली जाती हैं
इस्तिरी -बेइस्तिरी
पार्टियों-मेलों-सम्मेलनों में
रेडीमेड का लेबल लगाकर .
कलफ लगी साड़ियाँ
तकिये के नीचे नहीं तहातीं
पाजामे, गमछे या लुंगी की बगल में
कलफ लगी साड़ियाँ
हैंगर में टंगती हैं
कोट, पैंट , टाई के बराबर
टाईट .... एकदम कड़क .
कलफ लगी साड़ियाँ
अक्सर खुद नहीं जान पातीं
बढती सलवटें
दिन-महीने-साल
जो बनाते हैं उनपर .
वे तलाशती हैं नए हैंगर
नए सिरे से लटकने के लिए
हर बार.... आखिरी बार !
कलफ लगी साड़ियाँ
पोंछा नहीं बनतीं
टूट जाती हैं अक्सर
तार.........तार.......
कलफ टूटते - न टूटते .
Saturday, May 15, 2010
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बेहतरीन ,नए बिम्बों के साथ लिखी रचना
ReplyDeleteपहली लाईन ही फड़कती हुई है और सम्पूर्ण कविता उसका अनुसरण्ा कर रही है।
ReplyDeletebadi khoobsoorat...ek naya anubhav
ReplyDeleteकांत साहब, आप लिखते बहुत कम हैं, लेकिन नजरिया आपका एकदम हटकर है।
ReplyDeleteकलफ़ लगी साडि़यों से नफ़ासत तो झलकती हैं, लेकिन महत्च तो सूती साड़ियां का ही ज्यादा है।
बहुत खूबसूरत रचना।
वे तलाशती हैं नए हैंगर
ReplyDeleteनए सिरे से लटकने के लिए
हर बार.... आखिरी बार !
भाई यह तो बहुत ही सुन्दर कविता है । इसका विस्तार तो इतना अधिक है कि यह अपने इस मामूली से लगने वाले बिम्ब में भी अर्थ को अनंत विस्तार देती है ।
बधाई । आपकी और कवितायें पढ़ना चाहूंगा ।
bahut badhhiya rachna he ji.
ReplyDeleteकलफ लगी साड़ियाँ
तकिये के नीचे नहीं तहातीं
पाजामे, गमछे या लुंगी की बगल में
कलफ लगी साड़ियाँ
हैंगर में टंगती हैं
pasand aai panktiya.
Liked This Very Much
ReplyDeleteशरद कोकास जी नहीं पहुँचे होते तो मुझे आश्चर्य होता। उनकी बात मेरी बात।
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