मैं अब भी लिखता हूँ
तुम पर कवितायें , अनु
जबकि तुम सुनती हो
नवजात शिशु की सांसें
पति के सीने पर सिर रख.
मैं अब भी ढूंढता हूँ
तुम्हारे लिए उपमाएं ,
गढता हूँ टटके बिम्ब
और बनाता हूँ नए-नए अर्थ
तुम्हारे कहे उन्हीं पुराने शब्दों से .
मैं अब भी मोड़ता हूँ
पन्नों के कोने
बनाता हूँ दूब की पैतियाँ
खींचता हूँ किताबों पर रेखाएं
और पढ़ता हूँ तुम्हारा नाम .
गलत होवोगी तुम
यदि इसे प्रेम समझो
या फिर , प्रेम का नॉस्टेल्जिया.
यह हैंगओवर भी नहीं है
किसी अत्यन्त गहरे अनुभव का.
मित्र कहते हैं बूढ़ा हो रहा हूँ
पर मुझे लगता है, इसी बहाने जीवित तो हूँ मैं !
Friday, June 4, 2010
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एहसासों को खूबसूरती से लिखा है..
ReplyDeleteप्रेम कभी मरता नहीं ना ही हम अपने प्रियतम को कभी भूल पाते है ,वो तो नए रिश्तों के ढेर में कही खो जाता है और अचानक कभी कुछ टटोलते हुए हमारे हाँथ लग जाता है
ReplyDeleteसुन्दर रचना
कांत साहब,
ReplyDeleteआप भी इसी मर्ज के मरीज निकले.....!
बधाई दूं या सांत्वना?
इस मामले मेँ बधाई और सान्त्वना समानार्थी हैँ , कुछ भी दे दीजिए।
ReplyDeleteअपनी एक कविता याद आ गई:
ReplyDeletehttp://kavita-vihangam.blogspot.com/2010/06/blog-post_04.html