तुमने तय किया --
कृण्वन्तो विश्वमार्यम
और चल दिए थामे वल्गाएँ
श्वेत, सुपुष्ट अश्वों की
घाटियों-शिखरों-दर्रों के पार
ढूँढने मानव-बस्तियां
बनाने को उन्हें श्रेष्ठ !
अथाह जल-भरी सदानीराएं
मैदान अकूत अन्न-धन से भरे
नहीं थे , नहीं ही थे दृष्टि में तुम्हारी
बर्बर, लोलुप आक्रांताओ !
मान लेने को जी करता है
जोर पर तलवार के नहीं
सदाशयता से तुम्हारी
फैली करुणा और ज्ञान की रोशनी
अंधकूप में पडी असभ्यताओं तक !
बरसों-दशकों-सहस्राब्दियों...
जारी है अनवरत खेल
तुम तय करते हो
मुक्त करना है किसे और कितना
कब और कैसे भी तुम्हीं तय करते हो.
धरती की कोख से खोदने के बाद काला सोना
खदानें भर दे जाती हैं रेत से
तुम निचोड़कर हमारी स्थानीयता
खालीपन को पूरते हो अपने जैसा-पन से
इस हद तक जुनून है
दुनिया को सभ्य करते जाने का
लोकतंत्र पहुंचाते हो तुम मिसाइलों पर लादकर
बर्दाश्त कर पाना कठिन है
अपने से अलग भी कुछ है जो विशिष्ट है
जो अपने से अलग है असभ्य है
जो अपने से अलग है निर्दयी है
जो अपने से अलग है कूढ़मगज है
जो अपने से अलग है आततायी है
जो अपने से अलग है अंधकार में है
कृण्वन्तो विश्वमार्यम
साम्राज्यवाद बदनाम शब्द है.
आज बदले बदले से स्वर दिख रहे हैं रजनी बाबू!मगर सच्चे हैं इसलिए तीखे हैं... जिनके लिए हैं उनकी खाल बड़ी मोटी है... हम तो आए दिन यह खेल देखते हैं और आने वाली सभी नस्ल की तस्वीर की कल्पना करते हैं!!
ReplyDeleteप्रोफ़ैसर साहब, साम्राज्यवाद बदनाम सही, लेकिन कम से कम बाहर भीतर की एकरूपता तो दिखती है मुझे।
ReplyDeleteबड़ा मुश्किल दिखता है फिर से आर्य बन पाना .....सलिल भाई ठीक ही कहे हैं ......खाल बड़ी मोटी है. फिर भी हमें आशा नहीं छोड़नी है ....वही तो संबल है जो हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देगा
ReplyDelete..........कुछ कबीले हैं........जिन्हें अपनी तलवार पर पूरा भरोसा है