फेंकता है जाल
बटोर लाता है तुम्हारी यादें
मन मछेरा रोज़ रात
रोज़ रात जागती है आँख
आँख में जागते हैं दिन तुम्हारे प्यार के.
भीगती है ओस
रात कसमसाती है
बात कुछ होती नहीं है
उनींदी चादरों की सलवटें
कुछ अचकचायी देखती हैं
देखती हैं धर गया है कौन
बीते दिन तुम्हारे प्यार के.
मन मछेरे
कल सवेरे
फूटती होगी किरण उम्मीद की जब
ओस को करके विदा चुपचाप
दिन चढ़ने लगेगा
हम चलेंगे दूर सागर में
हवा के पाल पर
ढूँढने अपने पुराने दिन किसी के प्यार के.
प्रोफ़ैसर साहब, इस मन मछेरे के पास जाल नहीं महाजाल है, छोटी से छोटी याद को भी बटोर लाता है।
ReplyDeleteऔर स्साला फ़ाईल डिलीट का ओप्शन भी नहीं है।
फेंकता है जाल बटोर लाता है तुम्हारी याद ....
ReplyDeleteमन मछेरा ...
जाल को अब तक मछलियों को फंसाते ही देखा है मगर यहाँ तो मन ही जाल बना यादों की मछलिया फंसाए बैठा है ..
अनूठी बात !
वाह! बेहतरीन लिख है आपने..
ReplyDeleteमन मछेरा कितना विचित्र है, फिर भी कितना पहचाना।
ReplyDeleteइतनी सुन्दर कविता के लिए आभार स्वीकारें।
सुन्दर कविता के लिए आभार|
ReplyDeleteहोली पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ|
अशोक वाजपेयी की कुछ कवितायं याद हो आयीं....
ReplyDelete.
बहुत आसानी से एक बहुत अच्छी कविता निकल आयी है ......
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