अब न आदत रही गुनगुनाने की वह
मुझसे लिखने का सारा हुनर ले गयी
कल झुका कर नज़र रो पड़ी और फिर
मेरे सपनों की पूरी उमर ले गयी
उसने वादे किये मुझसे झूठे अगर
उसकी अपनी रही होंगी मजबूरियां
कौन चाहेगा ऐसे भला उम्र भर
ढोते रहना कसक टीस बेचैनियाँ
वह बुरी तो नहीं थी मगर भूल से
एक मासूम पंछी के पर ले गयी
हर कोई चाहता है सुखी ज़िन्दगी
चाह उसने भी की कुछ गलत तो नहीं
बात चुनने की थी सो चुना बुद्धि से
प्यार बदले ख़ुशी कुछ गलत तो नहीं
और भी थे चयन के लिए रास्ते
किन्तु बेचैनियों का सफ़र ले गयी
कसके मुट्ठी में बाँधी हुई रौशनी
राह रोशन करे यह जरूरी नहीं
देश का था ये विस्तार जो नप गया
पाँव नापे जिसे मन की दूरी नहीं
टिमटिमाते दियों की मधुर आस पर
वह अँधेरे सभी अपने घर ले गयी .
कमाल है ...बहुत खूब !! हार्दिक शुभकामनायें
ReplyDeleteरजनी भाई!
ReplyDeleteएक बहुत पुराना शेर है जो शायद आपके इस गीत के जवाब में बतौर डिस्क्लेमर किसी शायर ने ईजाद किया होगा..
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी,
यूं कोई बेवफा नहीं होता!!
आपका गीत एक साथ कई दिलों की दास्ताँ बयान कर गया..