पाखी वाला गीत अकेले जब-जब गाया
आकुल मन की विह्वलता में तुमको पाया
नाव किनारे से ज्यों छूटी
टूटी नींद नदी के जल की
हलकी-हलकी लाल किरण का
आँचल ओढ़े संध्या ढलकी
बनती-मिटती लहरें मन की प्रतिच्छाया .
बूढ़ा सूरज चलकर दिनभर
किरणों की गठरी कंधे पर
धीरे-धीरे पार क्षितिज के
लौट रहा थककर अपने घर
सुबह का भूला भटका, शाम हुई घर आया .
बहुत सुन्दर गीत है।
ReplyDeleteबरसों पहले की कोई साँझ उतर आती है मन में।
किरणों की गठरी और सूरज का थकना... बढ़िया.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत है। धन्यवाद|
ReplyDeleteएक दम ट्रेड मार्क है अनुज! सांझ को कनवास पर और भावनाओं को ह्रदय पर अंकित कर दिया!!
ReplyDeleteसांझ का खूबसूरत चित्रण ...दिल को छू गया , आकुल मन को संध्या में सुकून मिला...
ReplyDeleteमन में साँझ सी बसा देने वाला यह गीत बहुत ही सुन्दर है।
ReplyDeleteपढ़ा.
ReplyDeleteसूरज बुढ़ा गया तो उसका थकना लाजिम ही है, संध्या का सही चित्र उकेरा है प्रोफ़ैसर साहब। भई वाह।
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