वक़्त की आँधियों में पली ज़िन्दगी
राह काँटों की हरदम चली ज़िन्दगी
स्वप्न देखे अमरता के लाखों मगर
धूप के साथ हर दिन ढली ज़िन्दगी
आँख आंसू भरी होंठ हँसते रहे
उम्र बढती रही पाश कसते रहे
एक एहसास ख़ाली हथेली का और
दौड़ में हासिलों के हम फंसते रहे
हर घड़ी एक मुखौटा लगाये रही
नाटकों की तरह हो चली ज़िन्दगी
एक सुहानी सुबह की सुखद आस ले
धुंधली राहों का धुंधला-सा एहसास ले
रोज़ बढ़ते रहे हम कदम-दर-कदम
और बढ़ते रहे हर कदम फासले
राह मंजिल हुई साथ चलती रही
और क्षितिज ने हमेशा छली ज़िन्दगी
एक नदी की रवानी कदम में लिए
उम्र भर हम किनारों के जैसे जिए
लाख चाहा कि लहरों को बांधें मगर
एक छुवन को भी ताउम्र तरसा किये
बांधते छोड़ते कट गयी यह उमर
और कितना जिए मनचली ज़िन्दगी.
याद नहीं किसने कहा था कि ये ज़िंदगी साली बड़ी कुत्ती चीज़ है! माफ़ी चाहूँगा इस बात के लिये.
ReplyDeleteरजनी कांत जी! आज आपने पैदा होने और मर जाने के दर्मियान की ज़िंदगी के जो सच बयान किये हैं, वो आपकी संजीदगी का सबूत हैं!! जीते रहिये!!
आज ही पढ़ा एक शेर,
ReplyDelete"हर नफास उम्रे-गुजश्ता की है मय्यत 'फ़ानी'
जिन्दगी नाम है मर-मरके जिए जाने का"
और second thought में याद आता है वो शायर फ़िल्म नमक हलाल से,
"जीने की आरजू में रोज मर रहे हैं लोग,
मरने की जुस्तज़ू में जिये जा रहा हूं मैं"
प्रोफ़ेसर साहब, यही है कहानी जिन्दगी की, जो बयान की है आपने।