तुम न देखो मुझे यूँ अचीन्हे नयन
मैं स्वयं के लिए शाप हो जाऊँगा
मैं तुम्हारे लिए पुण्य करता रहा
आज टूटा अगर, पाप हो जाऊँगा
नाम जिसको कभी कोई दे न सका
नेह से भी बड़ा एक नाता रहा
बंध तोड़े सभी मैंने अनुबंध के
और प्रतारण नमित-शीश पाता रहा
मौन मन की न खोलीं अगर गुत्थियाँ
पीर के मन्त्र का जाप हो जाऊँगा
अब भी बाकी बहुत कुछ रहा अविजित
मेरे जीवन के दुर्धर्ष संघर्ष में
देह के दायरे टूट पाए नहीं
सारे उत्कर्ष में सारे अपकर्ष में
तुमसे कहकर हृदय की समूची व्यथा
आज मैं रिक्त-संताप हो जाऊँगा.
मैं स्वयं के लिए शाप हो जाऊँगा
मैं तुम्हारे लिए पुण्य करता रहा
आज टूटा अगर, पाप हो जाऊँगा
नाम जिसको कभी कोई दे न सका
नेह से भी बड़ा एक नाता रहा
बंध तोड़े सभी मैंने अनुबंध के
और प्रतारण नमित-शीश पाता रहा
मौन मन की न खोलीं अगर गुत्थियाँ
पीर के मन्त्र का जाप हो जाऊँगा
अब भी बाकी बहुत कुछ रहा अविजित
मेरे जीवन के दुर्धर्ष संघर्ष में
देह के दायरे टूट पाए नहीं
सारे उत्कर्ष में सारे अपकर्ष में
तुमसे कहकर हृदय की समूची व्यथा
आज मैं रिक्त-संताप हो जाऊँगा.
कृष्ण अदीब की एक गज़ल है,
ReplyDeleteमैं बियाबान-ए-मोहब्बत की सदा हो जाऊँ,
हाथ जो तुझको लगाऊँ तो फ़ना हो जाऊँ..
प्रोफ़ैसर साहब, प्लैटोनिक लव और दैहिक प्रेम एक दूसरे के पूरक हैं या बैरी, बहुत कन्फ़्यूज़िंग मैटर है।
बहरहाल, हमेशा की तरह, आप की कविता लाजवाब है।
मोहक, मीठी कविता सदैव की भांति।
ReplyDeleteपीर के मन्त्र का जाप हो जाऊँगा
ReplyDeleteपीर का रियाज़ी होंना -नसीब kii baat
अनचीन्हे नयन से सही, देखा तो.
ReplyDeleteरजनी कांत जी!देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का ये महूरत निकल जाएगा की तर्ज़ पर.. लेकिन भावों में ध्रुवों का अंतर.. आपके यह प्रश्न जो कविता में उभरे हैं उनका उत्तर सम्भव है क्या.. शायद नहीं.. आपकी कविताओं में जो ऐंटीरोमाण्टिक रोमांस दिखता है वो जान ले लेता है!!
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