बेटी की डोली उठी सूना आंगन-द्वार
पीपल रोया रो पड़ा बूढ़ा हरसिंगार .
दोपहरी थी कर रही पनघट पर विश्राम
आँचल पर तब लिख गया फागुन अपना नाम.
तन मेरा फागुन हुआ मन मेरा आषाढ़
बंधन टूटे देह के ऐसी आई बाढ़ .
संध्या बैठी घाट पर थककर श्रम से चूर
नटखट सूरज मांग में भरने लगा सिँदूर .
पनघट से कल कह गयी पायल मन की बात-
ख़त आया परदेश से जागी सारी रात.
इन्सां कैसे मर सके ढूंढ रहे तरकीब
कंकरीट से त्रस्त है मिट्टी की तहजीब .
पीपल रोया रो पड़ा बूढ़ा हरसिंगार .
दोपहरी थी कर रही पनघट पर विश्राम
आँचल पर तब लिख गया फागुन अपना नाम.
तन मेरा फागुन हुआ मन मेरा आषाढ़
बंधन टूटे देह के ऐसी आई बाढ़ .
संध्या बैठी घाट पर थककर श्रम से चूर
नटखट सूरज मांग में भरने लगा सिँदूर .
पनघट से कल कह गयी पायल मन की बात-
ख़त आया परदेश से जागी सारी रात.
इन्सां कैसे मर सके ढूंढ रहे तरकीब
कंकरीट से त्रस्त है मिट्टी की तहजीब .
खूबसूरत अल्फ़ाज़।
ReplyDeleteबदलता मौसम रंग दिखाने लगा है।
रजनीकांत जी!
ReplyDeleteमन वसंत हो गया एक एक दोहे पर! साँझ की माँग में सिंदूर पर मुझे अपनी ही लाईन याद हो आई
सूरज फ़ौजी की तरह
साँझ की माँग भरकर
चला जाता है सागर के तल में
नवब्याह्ता को विरहिनी बनाकर!
अंतिम दोहा मन को छू गया...
इसे जगजीत सिंह गाये तो कैसा रहेगा ?????
ReplyDeleteयह पंक्ति ज्यादा अच्छी लगी ........
इन्सां कैसे मर सके ढूंढ रहे तरकीब
कंकरीट से त्रस्त है मिट्टी की तहजीब .
मधुरिम, सभी दोहे
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