Tuesday, January 4, 2011

गुनाह की कविता

देह की वेदिका पर हवन हो गयीं
प्रेम के वेद की संहिताएं सभी
वासना के पुरोहित ने ऐसे पढ़ीं
स्नेह-सम्बन्ध की शुभ ऋचाएं सभी
    मूँद कर आँख सौंपा था विश्वास-धन
    अंजुरी में भरे अर्घ्य-सा मौन मन
    देहरी पर धरे दीप की भाँति लय
    कर दिए थे नयन में कुंवारे नयन
मोह आविष्ट स्वर की सजी आरती
और अपावन हुईं वर्तिकाएँ सभी
     देह की देहरी से बांधे प्रान क्यों
     केंद्र से इस परिधि के हैं अनजान क्यों
     जो युगों का है नाता तुम्हारा-मेरा
     फिर ये उथली-अधूरी-सी पहचान  क्यों
किसलिए काम ने कस लिया पाश में
और पापी हुईं कामनाएं सभी.

    

7 comments:

  1. मेरे अनगढ़ गीत पर इस गढ़न की दो पंक्तियाँ आप ने सुनाई थीं।
    बाद में आता हूँ।

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  2. काम को इतना भी पाप मानना शायद अन्याय हो। देह के योगदान को एकदम से नकारा तो नहीं जा सकता।
    या फ़िर शायद मैं इतना पवित्र नहीं, ठीक से कविता को समझ नहीं पाया:)
    रजनीकांत जी, आशा है सकारात्मक रूप में ही लेंगे।

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  3. रिश्तों की डोर.......
    नहीं पड़ती कमजोर......

    चाहे जो भी नाम दो.......
    या फिर बे-नाम रहने दो.

    नहीं ये पाप
    नहीं ये पुन्य.....

    यहीं कहीं बस यूँ ही....
    खो गई है......
    और गर्माहट........
    उन रिश्तों की.

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  4. रजनीकांत जी!
    हर महानगर के विभिन्न सार्वजनिक स्थानों पर हो रहे इस महायज्ञ की पौराणिक विधि का वर्णन!!

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  5. किन्तु कितना कठिन है दोनों को अलग अलग कर पाना . ....वह बिंदु पहचान पाना जहां से एक शुरू होता है और दूसरा ख़त्म .

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  6. वाह इतनी मधुर कि देर तक तरन्नुम में गुनगुनाता रहा -इस बार सोम जी याद आये!

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