घर... कि दीवार से आगे भी बहुत कुछ है...
घर... कि आकार से आगे भी बहुत कुछ है...
जिसके आँगन में हंसी बनके उतरती है किरन
जिसकी सांकल के खटकने पे संवर जाते हैं मन
घर...कि उपहार से आगे भी बहुत कुछ है...
जिसका हर कण है किसी गीत का पावन स्वर
'मैं' से आगे 'तुम' से पहले बीच में है घर
घर... कि अधिकार से आगे भी बहुत कुछ है
घर की सांसों में सभी सबकी आँखों में है घर
एक मंजिल जहाँ ठहरा थक के हर एक सफ़र
घर...कि व्यापार से आगे भी बहुत कुछ है...
घर... कि दीवार से आगे भी बहुत कुछ है...
घर... कि आकार से आगे भी बहुत कुछ है...
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क्या ख़ाका खींचा है रविशंकर जी! बेदरोदीवार का इक घर बनाया चाहिये या फिर
ReplyDeleteमेरे घर का दरवाज़ा कोई नहीं है/ हैं दीवारें गुम और छत भी नहीं है!
और आज आपने बताया कि घर दीवार और आकार से आगे भी बहुत कुछ है, सच है!!
घर की दीवार और आकार के आगे भी बहुत कुछ है ...
ReplyDeleteवाकई !
जितना छोटा लफ़्ज है, उतना ही विस्तृत विचार है।
ReplyDelete"मैं' से आगे 'तुम' से पहले बीच में है घर"
दोनों को जोड़ता है।
रजनीकांत जी! आप और रविशंकर दोनों ही मुझे प्रिय हैं... लेकिन नाम लिखकर सम्बोधित करने की आदत है और आप दोनों में हमेशा गड़बड़ हो जाती है.. धन्यवाद संजय जी जो आपने मेरी भूल बता दी! रजनीकांत जी क्षमा!!
ReplyDeleteघर ! कुछ कह नहीं सकता ! घर का ऐसा डिस्क्रिप्शन सिर्फ कविताओं में पढा है !
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