Saturday, January 15, 2011

कैसे कह दूँ , मीत !

कैसे कह दूँ , मीत ! मुझे अब तुमसे प्यार नहीं है

जिन अधरों पर मेरी बातें
जिस जिह्वा पर मेरा नाम
जिन पलकों में सुबहें मेरी
जिन केशों में मेरी शाम
जिस पर था कल , आज कहीं मेरा अधिकार नहीं है

संग-संग चलना मौन सड़क पर
आँखों से कह देनी बात
अपने सारे साझे सपने
जो देखे थे हमने साथ
अब भी हैं मौजूद कहीं पर वह आकार नहीं है

टुकड़ा-टुकड़ा जी लेने को
कैसे दूं जीवन का नाम
खींच रही है नियति नटी हर
पल-छीन डोरी आठों याम
टिका सके जो चार चरण कोई आधार नहीं है.

5 comments:

  1. जिस पर था कल,आज कहीं मेरा अधिकार नहीं है
    कैसे कह दूँ.......

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  2. बहुत मुश्किल है ये कह पाना, वैसे कहने की नौबत ही नहीं आती।

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  3. उन्हीं रास्तों पे जिनपे, कभी तुम थे साथ मेरे,
    उन्हीं रास्तों ए पूछा, तेरा हमसफर कहाँ है!
    .
    सुंदर गीत!!

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  4. इस कविता की समझ और व्याख्या के लिए कतिपय संकेत शब्द -

    गृह विरह ,संशय ,नैराश्य ,असमंजस ,अतीतजीविता...

    आईये बाहर आईये ...बसंत आ पहुंचा है!

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