ये मेरे अक्षत अधर तेरे लिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी
झील हैं तेरे नयन जलते दिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी
तू अगर गीतों में मेरे प्रेम-स्वर पहचान ले
तू अगर मेरी हंसी का लक्ष्य खुद को जान ले
अर्घ्य में एकादशी के नाम मेरा ले अगर
तू हृदय के बंध का सम्बन्ध यूँ ही मान ले
दोष तेरा ही है इसमें सुन , शुभे
पल कोई मैंने तेरी खातिर जिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी
सांझ की पिछली किरण से नेह था, मैं मानता
साड़ियाँ छत पर सुखाती थी तुझे मैं जानता
बस यूँ ही दो-इक दफा हिलते अधर खिलते नयन
दिख गए होंगे कभी इतना ही मैं पहचानता
हर किसी पहचान को अब प्रेम तो कहते नहीं
प्रात मैंने रात जग अनगिन किये हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी
एक कोई लेके मुझको जी रहा है सांस में
एक कोई नाम मेरी उम्र भर की प्यास में
दिन गए कई साल बीते जब शरद की एक सुबह
लिख उठा था नाम कोई और मेरे पास में
सच यही है , झूठ इसमें कुछ नहीं है
पुण्य सब संकल्प तुझको कर दिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी.
Thursday, December 30, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
रजनीकांत जी!
ReplyDeleteबरसों बरसों बरसों बाद इस छंद में कोई कविता पढने को मिली है... और इतनी कोमलता से एक अद्भुत प्रेम की व्याख्या युगों के बाद सुनने को मिली.. अभी तक निकला नहीं हूँ इन शब्दों के सम्मोहन से!!
सच में प्रोफ़ैसर साहब, कहाँ कहा आपने ये सब...बिल्कुल नहीं कहा होगा, बिल्कुल नहीं।
ReplyDeleteअर्घ्य में एकादशी के नाम मेरा ले अगर
ReplyDeleteतू ह्रदय के बंध का सम्बन्ध यूँ ही मान ले
दोष तेरा ही है इसमें सुन, शुभे
पुण्य सब संकल्प तुझको कर दिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी.
बदिया लगी ये कविता - अद्बुत रंग..... प्रेम के .
ह्रदय - हृदय
ReplyDelete@ अक्षत अधर - :)
अर्घ्य,एकादशी और संकल्प - गँवई होते जाते इन आराधन प्रतीकों के प्रयोग बहुत सुहाए। प्रेम पूजा जैसा।
@
सांझ की पिछली किरण से नेह था, मैं मानता
साड़ियाँ छत पर सुखाती थी तुझे मैं जानता
बस यूँ ही दो-इक दफा हिलते अधर खिलते नयन
दिख गए होंगे कभी इतना ही मैं पहचानता
हर किसी पहचान को अब प्रेम तो कहते नहीं
साँझ की यह 'उड़ती' पहचान और उसके बाद रतजगा। कुछ नहीं कहना इस भोलेपन पर! :)
अनुनाद तो पता ही होगा? दो समान आवृत्तियाँ जब मिलती हैं तो कम्पन के आयाम इतने बढ़ जाते हैं कि सब कुछ तितर बितर!
Mr. Kant. I like your poetry. No, I love your poetry.
@हर किसी पहचान को अब प्रेम तो कहते नहीं
ReplyDelete@पुण्य सब संकल्प तुझको कर दिए हैं
ये कहाँ मैंने कहा तुझसे कभी.
इन पर क्या कहूँ? सम्मोहन की अवस्था में कुछ कहा नहीं जाता।
सब कुछ कह दिया और कुछ कहा भी नहीं-कविता यही है --
ReplyDeleteऔर यह भी
इस मासूमियत पर न मर जाए कौन खुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं