Thursday, December 23, 2010
दो कदम तेरी तरफ मैं फिर चलूँ
प्रिय आज मैंने फिर जलाया सांध्य-दीपक
आज मेरा मन हुआ है फिर जलूं
अधिकार सब निःशेष तुझ पर हो चुके पर
चाहता हूँ एक दफा मन फिर छलूं
फागुनी वाताश में बिखरी हुई मधुगंध जैसे
याद बनकर बस गयी है मौन मन के पोर में
बीतते पतझड़ में डाली से विलग पत्ते सरीखा
चाहता तन बंध के रहना पीत आँचल-कोर में
गो पाँव मेरे थक चुके पर शेष चाहत
दो कदम तेरी तरफ मैं फिर चलूँ
रूप की आराधना की साध पूरी हो चुकी पर
स्नेह के सम्बन्ध बंधने की ललक बाकी रही
देवता भी, दीप भी हैं देव-मंदिर-गर्भगृह में
अंजुरी-जल अर्घ्य कर दे किन्तु वह श्रद्धा नहीं है
भेंट दूं सर्वस्व दीपक की सदाशयता को मैं
और घुप अंधियारे सरीखा फिर गलूं .
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" फागुनी वाताश में बिखरी हुई मधुगंध जैसे
ReplyDeleteयाद बनकर बस गयी है मौन मन के पोर में"
यह मधुगंध बसना ही जानती है, और याद बनकर खुद बस जाती है और मन को बे दरो-दीवार कर देती है।
रजनीकांत जी!
ReplyDeleteप्रेम के एक अद्भुत रस में सराबोर, एक नई परिभाषा गढती यह कविता... बच्चन जी की मिलन यामिनी याद आ गई...
मुझे लगा कि मनु का प्रेमपत्र पढ़ रहा हूँ :)
ReplyDeleteसाधुबाद
ReplyDeleteसुन्दर रचना। आभार।
ReplyDeletekhud ko puraa puraa de dene kii ,samgr samrpan kii ek laalasaa...
ReplyDeleteसुन्दर रचना। आभार।
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