मन की तकलीफ का ज़िक्र क्या कीजिये
सांस एक डोर है फड़फड़ाती हुई
जोर से खींचिए फिर उड़ा दीजिए.
फागुनी गंध-सा टीसता है ये मन
इन कुंवारी हवाओं का स्पर्श कर
स्नेह की आखिरी बूँद तक किस तरह
कोई ले जाए सम्बन्ध को खींचकर
उम्र ऐसे ही चुप-चुप बिता दीजिए.
हाथ यों तो उठेंगे कई थामने
लाख कंधे कि सर रख के रो भी सकें
आंख तक उठ कर आयेंगी कई अंगुलियां
अश्रु-जल में स्वयं को भिगो जो सकें
ये न छू पायें मन पर पड़ी सलवटें
देह की देहरी पर टिका दीजिए .
जब बात की मन की , तो एक भी कम्मेंट नहीं !....मन के उदगार ही तो गीतों में बयान होते हैं , और सब से सुन्दर गीत वही हैं जो भावों को जगा सकें ।
ReplyDelete@ सांस एक डोर है फड़फड़ाती हुई
ReplyDeleteजोर से खींचिए फिर उड़ा दीजिए.
देह की देहरी पर टिका दीजिए .
क्या बात है!
ऐसी बन्दिशें मंचीय प्रस्तुति के लिए भी उत्तम हैं। मैं तो कल्पना में तालियों की गड़गड़ाहट सुन रहा हूँ।