Thursday, March 11, 2010

शिमला: जैसा मैंने देखा

१.सुबह
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चीड के पेड़ों पर उतरी
अनमनी अलसाई भोर ने
मलते हुए आँखें खोलीं
और एक अजनबी को ताकते देख
कुछ झिझकी , कुछ शरमाई
फिर कोहरे का घूँघट काढ लिया.
ठंड  खाए सूरज ने खंखारा
भोर कुछ और सिमटी .
दो अँगुलियों से घूंघट टार कर
उसने कनखियों से अजनबी को देखा,
अजनबी ने बाहें फैला दीं
दूर तक की घाटियाँ समेट लेने भर
और हलका- सा मुस्कुरा दिया.

समय पहले थमा
कुछ देर जमा
और फिर पिघलकर सुबह बन गया.



२. दोपहर
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सूरज आज छुट्टी पर है.
चंचला घाटियों ने न्यौत दिया एक-दूसरे को 
दिन से बद ली   शर्त
और छिप गयीं जाकर दूर-दूर
हरे दरख्तों के पीछे.
दिन ने कहा-- आउट 
एक घाटी  निकल आई बाहर 
फिर दूसरी , फिर तीसरी
एक-एककर सभी घाटियाँ निकल आयीं बाहर
आउट होकर .
रह गयी एक घाटी 
सबसे छोटी
दुधमुहें बच्चे-सी 
मनुष्यों के जंगल में खोकर.
डांट खाई घाटियाँ
तलाशती रहीं रुआंसी हो 
तमाम दोपहर,
अमर्ष से भर-भर आयीं 
बार-बार.  


३.सांझ  
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रिज की रेलिंगों पर कुहनियाँ टिकाये
ललछौहीं शाम
झांकती रही घाटी में 
देर.... बहुत दे....र तक...
तब तक, जब तक कि 
चिनार सो नहीं गए, 
सड़कें चलीं नहीं गयीं अपने घर
और कुंवारी हवाएं लौट नहीं आयीं
दिन भर खटने के बाद.


४.रात : अमावस की  
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सो गए हैं सब
चिनार और कबूतर
झरने की लोरियां सुनते.
सज चुकी है
सलमे-सितारे जड़ी पोशाक पहन
अभिसारिका घाटी.
रह-रहकर देखती है निरभ्र आकाश--
मुझसे तो कम ही हैं!

गहराई रात और 
टिक गयीं क्षितिज पर आँखें
एकटक...
न निकलना था 
न निकला चाँद .
आहतमना 
पूरितनयना  
एक-एककर तोड़ती रही सितारे 
फेंकती रही आकाश में
सो जाने तक.    
   

        

2 comments:

  1. उम्दा शाब्द चित्रण.

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  2. वारे गए रे!

    भैया शुद्ध शब्द दुपहर है, दोपहर नहीं।

    आप की इस कविता का कुछ करना पड़ेगा। 'आर्जव' पर आज जो पोस्ट लिखी है उसमें जोड़ रहा हूँ।

    मज़बूर कर दिए, क्या करूँ?

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