तुम्हारे नाम के सारे
किन्हीं पुरुवाइओं के ख़त
रखे हैं मैंने
नयन में सहेजकर
क्षितिज पर झुक आए
मोरपंखी बादलों-से .
तुम्हारे नयनों से ढुलकी
स्वाति की बूँदें
सीपिया हथेलियों में
बटोर ली हैं मैंने
अगले जन्मों के लिए.
सुनो,
पगडंडियों से नीचे उतरते
मत देखना मुडकर इधर
बंध जाओगे मेरी तरह
सन्नाटे के आकर्षण में तुम भी.
जादू है तुम्हारी उँगलियों में
मत छूना मन
पिछली बरसात में खोया मैं
ढूंढता हूँ आज भी खुद को
यहाँ-वहां तुम्हारे आस-पास .
Saturday, July 31, 2010
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बहुत सुन्दर रचना है बधाई स्वीकारें।
ReplyDeleteसुंदर रचना,पसंद आई
ReplyDeleteआज गुलज़ार साहब को कोट करने का इजाज़त दीजिए रजनी कांत जी, आपके इस कबिता परः
ReplyDeleteएक अकेली छतरी में जब
आधे आधे भीग रहे थे
आधे सूखे आधे गीले,
सूखा तो मैं ले आई थी
गीला मन शायद
बिस्तर के पास पड़ा हो
वो भिजवा दो!
.
बहुत खूबसूरत है आपका रचना!
तुम्हारे नाम के सारे
ReplyDeleteकिन्हीं पुरुवाइओं के ख़त
रखे हैं मैंने
नयन में सहेजकर
क्षितिज पर झुक आए
मोरपंखी बादलों-से .
क्या बात है। मैं अपनो पलों को इतने सुंदर शब्द नहीं दे पाता.....काश आपकी तरह दे पाता..
हर बार मुग्ध करते हैं आप ! बेहतरीन !
ReplyDeleteबहुत खूब!
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