ऐसी पहचान तो न थी तुमसे
कि मन उदास हो जाये इतना
निगाह मुड़ ही जाती है उस ओर
दर्द नया है अभी ,
पांव भूल जाते हैं रास्ता
चौराहे पर पहुंचकर
आदत पुरानी है बहुत ,
सपाट , बिलकुल सपाट
डामर की सड़क-सी बात
निकली निकलने-सी
और हवा में कमरे की
भक्क से फैल गयी ,
कहीं कुछ काँपा भीतर
तरल परछाईं -सा
मन था शायद.
सुख होता है , सुख
किसी अपने के सुख से ,
तुमने घर चुना है
और मैंने घर का सपना
तुम उसे सजाओ
मैं इसे संवारूं
सुख दोनों ही ओर होगा
-- ऐसा ही कुछ कहा मैंने
ऐसा ही कुछ सुना तुमने
फिर यह अंत श्रावण का मेघ
आँखों में क्यों उतर आता है बार-बार
चुपचाप भले मानुष-सा.
Friday, July 16, 2010
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बहुत संवेदनशील ...
ReplyDeleteआप तो सर, नि:शब्द कर देते हैं। जैसे शत्रुघ्न सिन्हा दहाड़ कर कहते हैं ’खामोश’, आप कविता ऐसी लिख देते हैं कि कितना कुछ घटित हो जाता है भीतर।
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा है।
ई त हमरे मन का बात लिख दिए हैं आप रजनी बाबू...अईसा बिजोग हम खुदे देखे हैं... आप लिख दिए अऊर हम उसका एक एक अक्षर महसुस कर रहे हैं... मन भर गया!!
ReplyDeleteफिर यह अंत श्रावण का मेघ
ReplyDeleteआँखों में क्यों उतर आता है बार-बार ..
मन का दर्द निकल जाता है ...!
धन्यवाद आपको कि आपने ही एक बहुत अच्छे ब्लॉग तक मुझे पहुंचा दिया .. बहुत कुछ है यहाँ ! .. सबसे बड़ी बात है फिजूल सा कुछ नहीं , उपयोगी सा काफी कुछ .. ! ठहर के पढूंगा , जल्दी काहे की !
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