कोई ऐसे भी किसी को चाहता है भला
जैसे तुमने मुझे चाहा एकदम टूटकर
कि दुनिया के सभी रस्मो-रिवाज़ बिखर गए ,
किस्सों कि दुनिया से निकलीं आत्माएं
और हमारे जिस्मों में बेतरह समा गयीं .
दुनिया के बनने के दिन मिटटी का एक लोंदा
टूटकर बंट गया दो हिस्सों में
एक के पास रह गयी दूसरे की कुछ अमानत
कुछ आड़ी-तिरछी-सी पहचान रह गयी कसकती
जिस्म के उस हिस्से में दबी
जिसे इन्सान ने युगों बाद दिल कहा .
दोनों हिस्सों को पता ही न चला
कि कब उस बनानेवाले ने घुमाईं उँगलियाँ
और उन्हें छोड़ दिया समय और आकाश की अनंतता में
एक-दूसरे की तलाश में भटकने के लिए .
दिन बना, दुनिया बनी, धरती और दरिया बने
हरे दरख्तों की छाँव में उतरीं सतरंगी किरणें
चिड़ियों ने सीखे जलतरंगों के गीत
तभी मिट्टी के लोंदे का वह टुकड़ा आ निकला
दरिया के किनारे-किनारे तलाशता अपनी अमानत
वह आड़ी -तिरछी पहचान छिपाए जिस्म के उस हिस्से में
जिसे इंसान ने युगों बाद दिल कहा .
उसी दरख़्त के नीचे सतरंगी किरनों की खुमारी में सोया
जागा सुनकर जलतरंगों से सीखा चिड़ियों का गीत
और तभी उसने जाना कि वह सपने देख सकता है.
दिन बीते , रातें बीतीं, चिड़ियों ने गा दिए अपने सभी गीत
दरख्तों ने पत्ते झाड़े और फिर नए कपड़े पहने
सतरंगी किरणों ने बनाये बहुत सारे इन्द्रधनुष
वह टुकड़ा फिर भी बेचैन-सा ताकता रहा
उफनते हुए दरिया का पानी दिन और रात
दिन और रात महसूस करता अजानी-सी टीस
कभी-कभी चीख पड़ता जोर से कोई नाम
जिसका अर्थ उस दरिया के सिवा कोई नहीं जानता था.
यूँ ही बहते दरिया को बीते कुछ और बरस
कुछ और ऊँचे हो गए किनारे दरिया के
चिड़ियों कि नयी पीढ़ियाँ भूलने लगीं जलतरंगों से सीखे गीत .
एक दिन दरख्तों तले उतरी सतरंगी किरणों ने देखा
वह टुकड़ा बेचैन-सा चीखा फिर वही नाम
और दूर दरिया के उस पार एक परछाईं हिल पड़ी रेत में
दोनों ओर दरिया के उभरी शाश्वत पहचान की चमक
हिलती परछाईं दौड़कर कूद पड़ी दरिया में
उस टुकड़े ने भी लगायी छलांग और दरिया हँस पड़ा .
इधर कसक बढती रही और उधर गति
पर इनसे भी तेज़ बढ़ती रही दरिया की धार
अनंत समय और आकाश सिमटकर दृष्टि-सीमा तक आ गए
वह आड़ी-तिरछी पहचान सीधी हो स्पष्ट हो गयी
चरम पर पहुँच गयी वह आदिम कसक
जो जिस्म के उस हिस्से में थी जिसे इंसान ने युगों बाद दिल कहा .
एक लम्बी यात्रा की थकन आँखों में उतर आई
साँसें रोके दरख्तों, सतरंगी किरणों और चिड़ियों ने देखा
समय और आकाश का सिमटना नहीं संभाल पाया दरिया
एक उफान आया और आकाश फैल गया
एक लहर गिरी और समय पसर गया
न वह परछाईं रही न वह टुकड़ा .
चिड़ियों को भूले गीत फिर याद आ गए
सतरंगी किरणों ने फिर बनाये ढेर सारे इन्द्रधनुष
और दरिया यों ही बहता रहा निरंतर .
हर दिन हर पल दुहराया जाता यह किस्सा
लगा था कि ठहर जायेगा हमपर- तुमपर
कोई ऐसे भी किसी को चाहता है भला
कि किस्सों की दुनिया से निकलें आत्माएं
और बेतरह समा जाएँ हमारे जिस्मों में.
चुपचाप बहता दरिया हँस पड़े यों ही
और चिड़ियों को याद आ जाएँ भूले गीत
कहीं ऐसे भी किसी को कोई चाहता है भला.
Sunday, July 25, 2010
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रजनी कांत जी, आप त चाहत और दिल का अईसा परिभासा गढे हैं कि केतना बार त हमको सच में करेजा टटोलकर देखना पड़ा कि सच्चो धड़क रहा है हमरा दिल.. सृष्टि के प्रारम्भ से जो बर्नन आप किए हैं, ऊ एगो स्वर्गिक आनंद से कम नहीं... आभार!!
ReplyDeleteचुपचाप बहता दरिया हँस पड़े यों ही
ReplyDeleteऔर चिड़ियों को याद आ जाएँ भूले गीत
कहीं ऐसे भी किसी को कोई चाहता है भला....
बहुत सुन्दर ...!
ReplyDeleteअद्भुत ..."
ReplyDeletebahut khoob
ReplyDeleteआज इस कविता पर तीसरी बार आया हूँ - सिर्फ यह बताने कि एक ऋण का बोझ था जो चुप रखे था। अब उतार रहा हूँ। इसलिए टिप्पणी कर पा रहा हूँ।
ReplyDeleteनहीं समझे Kant? छोड़ो, क्या सब कुछ समझना जरूरी होता है ? :)
चाहना भी इतना कठिन .....?
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