बरसो असाढ़ बरसो
तुम धार-धार बरसो
तुम बार-बार बरसो
बरसो असाढ़ बरसो
बरसो कि प्यास बाकी
बरसो उजास बाकी
इस जिंदगी की जंग में
बरसो कि आस बाकी
बरसो असाढ़ बरसो
बरसो कि प्यास भीजे
बिरहिन की आस भीजे
यह खडखडी दुपहरी
बीते और सांस भीजे
बरसो असाढ़ बरसो
बरसो कि खेत भीजे
बरसो कि रेत भीजे
सब भूत-प्रेत भीजे
सब सेंत-मेंत भीजे
बरसो असाढ़ बरसो
आँचल का कोर भीजे
बांहों का जोर भीजे
मन का अंजोर भीजे
सब पोर-पोर भीजे
बरसो असाढ़ बरसो
काली का थान भीजे
छप्पर-मचान भीजे
बड़का मकान भीजे
सब आन-बान भीजे
बरसो असाढ़ बरसो
आँगन-दुआर भीजे
पनघट-इनार भीजे
कुक्कुर-सियार भीजे
सब कार-बार भीजे
बरसो असाढ़ बरसो
बरसो कि बाग भीजे
पोखर-तड़ाग भीजे
कजरी का राग भीजे
धनिया का भाग भीजे
बरसो असाढ़ बरसो
बरसो कि सब बदल दो
बदलेगा तुम दखल दो
सब सड़ गए सरोवर
हँसते हुए कमल दो
बरसो असाढ़ बरसो .
तुम धार-धार बरसो
तुम बार-बार बरसो
बरसो असाढ़ बरसो
बरसो कि प्यास बाकी
बरसो उजास बाकी
इस जिंदगी की जंग में
बरसो कि आस बाकी
बरसो असाढ़ बरसो
बरसो कि प्यास भीजे
बिरहिन की आस भीजे
यह खडखडी दुपहरी
बीते और सांस भीजे
बरसो असाढ़ बरसो
बरसो कि खेत भीजे
बरसो कि रेत भीजे
सब भूत-प्रेत भीजे
सब सेंत-मेंत भीजे
बरसो असाढ़ बरसो
आँचल का कोर भीजे
बांहों का जोर भीजे
मन का अंजोर भीजे
सब पोर-पोर भीजे
बरसो असाढ़ बरसो
काली का थान भीजे
छप्पर-मचान भीजे
बड़का मकान भीजे
सब आन-बान भीजे
बरसो असाढ़ बरसो
आँगन-दुआर भीजे
पनघट-इनार भीजे
कुक्कुर-सियार भीजे
सब कार-बार भीजे
बरसो असाढ़ बरसो
बरसो कि बाग भीजे
पोखर-तड़ाग भीजे
कजरी का राग भीजे
धनिया का भाग भीजे
बरसो असाढ़ बरसो
बरसो कि सब बदल दो
बदलेगा तुम दखल दो
सब सड़ गए सरोवर
हँसते हुए कमल दो
बरसो असाढ़ बरसो .
क्या बात कही है.. .?
ReplyDeleteबहुतै बढ़िया आवाहन किहो है.अब वैसे भी सावन सामने है !
वर्षा का आव्हान न केवल तन, मन भीगोता है अपितु प्रेमचंद, दुष्यन्त कुमार की याद भी दिलाता है। जब कवि लिखता है...
ReplyDeleteपोखर-तड़ाग भीजे
कजरी का राग भीजे
धनिया का भाग भीजे
...तो एक गज़ब की झुरझुरी होती है। लगता है प्रेमचंद जीवित हैं। जब वह लिखता है..
सब सड़ गए सरोवर
हँसते हुए कमल दो
बरसो असाढ़ बरसो।
..'दुष्यन्त कुमार' याद आते हैं। व्यवस्था पर इतनी सहजता से इतना करारा प्रहार अब कम ही देखने को मिलता है।
'खड़खड़ी दोपहरी' आतप की विभीषिका दर्शाती है। एक पंक्ति..इस जिंदगी की जंग में...थोड़ी लय टूटती सी प्रतीत होती है बाकी गीत संग्रहणीय है। इसकी जितनी भी तारीफ की जाय कम है।
...सादर आभार।
बरसो रे कारे बादरवा...
ReplyDeletevaah..bahut achichi lagi..bol bol padhi
ReplyDeleteभाई जी एक आह्वान अब सावन को भी -आषाढ़ तो रीत गया बीत गया
ReplyDeleteआषाढ़ तो रीत गया
ReplyDeleteअब सावन से आस है ...
जीवन घट सूना सा
न मीत कोई पास है :(
न छाई है बदरी,
बेगानी उजास है
घटा कोई घिर आये
बस एक यही आस है!
सुन्दर आह्वान है! अब आते ही होंगे बादल!
ReplyDeleteकवि ने ऐसे आवाज दी की बादल झमक ही आए!
ReplyDeleteभीज गया ! :)
ReplyDeleteकुक्कुर सियार , आंगन तड़ाग , धनिया का साग ..सब भीज गया !
ReplyDelete