Sunday, May 27, 2012

ये उदासियाँ

ये उदासियाँ भी मेरे ही हिस्से आनी थीं
कि जैसे आती है
रात भर जागी हुई आँखों में नींद
और गंधाते पानी में मछलियों को सांस
बस जी लेने भर

उदास होना जीवित होना है
रोज़मर्रा की लंगडी दौड में
कि खराब होना अब भी खराब है
और गलत बिलकुल उतना ही गलत
न ज्यादा न कम सांस भर

उदासी आइना है
और सबूत भी
जीवित होने का.

7 comments:

  1. ओह!
    ...कि जैसे आती है
    रात भर जागी हुई आँखों में नींद
    और गंधाते पानी में मछलियों को सांस
    बस जी लेने भर...

    मन बहुत सोचता है कि उदास न हो
    पर उदासी के बिना रहा कैसे जाये? --’अज्ञेय’


    मैं आऊँ, कुछ भी कह जाऊँ- हिसाब की टिप्पणी ही समझिए! मेरा कुछ कहना अपने भीतर का हुलास दिखाना है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी टिप्पणी की हमेशा प्रतीक्षा रहती है, हिमांशु जी.

      Delete
  2. उदासी प्यारी लगने लगी। कुछ सासें तो बढ़ ही जायेंगी अपनी।..आभार।

    ReplyDelete
  3. उदासी के अपने अलग मजे हैं...!

    ReplyDelete
  4. उदासी और ग़म तो एक जलती हुई अगरबत्ती कि तरह होता है जो देर तक जलकर खुशबू बिखेरती रहती है, और खुशियाँ सिर्फ एक फुलझड़ी कि तरह जो ज़रा देर जल कर बुझ जाया करती है।

    ReplyDelete
  5. कितने दिन बाद लौटे हैं सर, आमद भली लगी।

    ReplyDelete
  6. अब तो उदासी न हो तो हम उदास हो जाते हैं :)

    ReplyDelete