बांटता ग़म सभी साथ तेरे मगर
तुझपे जाने मुझे क्यों भरोसा न था
यह नहीं कि तुझे मैंने पूजा नहीं
या कभी टूटकर तूने चाहा न था
मेरी आँखें प्रिये तेरी आँखों में थीं
तेरी साँसों की मधुगंध थी सांस में
मेरे होंठों से पिघली हँसी में तू ही
दर्द-सा ले फिरा तुझको एहसास में
पर निरंतर रही टीसती एक व्यथा
अश्रुजल में तेरे जिसको धोया न था
साँझ की हर ढलकती किरण लिख गयी
मौन के अक्षरों में कथाएँ कई
रात-सा मन पसरता रहा दूर तक
बाँध लेने को लाखों व्यथाएँ नई
भागवत की कथा-सा मैं बहता मगर
आवरण मन की पोथी का खोला न था .
कमाल का रंग है हर छंद में प्रोफ़ेसर साहब!! कमाल... कमाल... कमाल!!
ReplyDeleteपंजाबी के कवि सुरजीत पातर के बारे में एक बात सुनी है, कुछ दिन पहले हार्ट सर्जरी के सिलसिले में अस्पताल में उन्होंने लिखा था -
ReplyDeleteदिल खोल्या होंदा अगर यारां दे नाल,
आज खोलना न पैंदा औजारां दे नाल।
सुनी सुनाई बात है, शब्दों का हेरफ़ेर हो सकता है लेकिन मन की पोथी का आवरण बंद रहे तो दिक्कत होती है। ये अलग बात है कि ये पुराण हमेशा खोला बांचा भी नहीं जा सकता।
प्रोफ़ैसर साहब, बहुत अच्छा लिखा है। सैल्यूट।
वाह!
ReplyDeleteभागवत की कथा सा मैं बहता मगर
ReplyDeleteआवरण मन की पोथी का खोला न था।
...बेहतरीन पंक्तियाँ हैं।