तुम्हारी पाती मिली अबोध
तुम्हारी पाती मिली अजान
नयन के कोरों पर चुपचाप
उभर आई पिछली पहचान
किताबों में डूबा मैं आज
ढूंढता था जीवन के राज़
तभी धीरे से आकर पास
तुम्हारे ख़त ने दी आवाज़
मुझे खोलो मैं थककर चूर
संभालो लाया हूँ मुस्कान
नयन से देखा जैसे गीत
लिया अधरों से छू संगीत
लगा है ऐसा ही कुछ आज
तुम्हारा ख़त पाकर मनमीत
उडूं मैं नभ में पांखें खोल
सुनाता फिरूं तुम्हारे गान
जगे हैं सोए मन के भाव
अखरने लगा बहुत अलगाव
न जाने बीते दिन क्यों आज
कसकते जैसे कोई घाव
हिये की पगली छिछली पीर
गयी अधरों पर बन मुस्कान
तुम्हारी पाती मिली अबोध
तुम्हारी पाती मिली अजान.
(प्रथम दो पंक्तियाँ स्व. डॉ धर्मवीर भारती जी से साभार)
ह्रदय गुफा थी सून रहा घोर सूना
ReplyDeleteइसे बढाऊँ शीघ्र बढ़ा मन दूना
पथिक आ गया एक न मैंने पहचाना
हुए नहीं पदशब्द न मैंने जाना
यहाँ तो कवि एक पाती भी पा गया ....
अद्भुत!!
ReplyDeleteपाती या अनमोल थाती....
ReplyDeleteमुझे खोलो मै थक कर चूर
ReplyDeleteसंभालो लाया हूँ मुस्कान
bahut achhi lagi ye vali panktiya....
अहा...अद्भुत लेखन!
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