Wednesday, September 7, 2011

तुम्हारी पाती

तुम्हारी पाती मिली अबोध 
तुम्हारी पाती मिली अजान
नयन के कोरों पर चुपचाप
उभर आई पिछली पहचान 

     किताबों में डूबा मैं आज 
     ढूंढता  था जीवन के राज़ 
     तभी धीरे से आकर पास 
     तुम्हारे ख़त ने दी आवाज़

मुझे खोलो मैं थककर चूर
संभालो लाया हूँ मुस्कान 

     नयन से देखा जैसे गीत 
     लिया अधरों से छू संगीत 
     लगा है ऐसा ही कुछ आज
     तुम्हारा ख़त पाकर मनमीत 

उडूं मैं नभ में पांखें खोल
सुनाता फिरूं तुम्हारे गान

     जगे हैं सोए मन के भाव 
     अखरने लगा बहुत अलगाव
     न जाने बीते दिन क्यों आज
     कसकते जैसे कोई घाव 

हिये की पगली छिछली पीर
गयी अधरों पर बन मुस्कान
तुम्हारी पाती मिली अबोध 
तुम्हारी पाती मिली अजान.

(प्रथम दो पंक्तियाँ स्व. डॉ धर्मवीर भारती जी से साभार)



5 comments:

  1. ह्रदय गुफा थी सून रहा घोर सूना
    इसे बढाऊँ शीघ्र बढ़ा मन दूना
    पथिक आ गया एक न मैंने पहचाना
    हुए नहीं पदशब्द न मैंने जाना
    यहाँ तो कवि एक पाती भी पा गया ....

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  2. मुझे खोलो मै थक कर चूर
    संभालो लाया हूँ मुस्कान
    bahut achhi lagi ye vali panktiya....

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