Saturday, March 9, 2013

लतखोर टाइप का समय

लतखोर टाइप  का यह समय
सभ्य भाषा में नहीं लिखा जा सकता
मूत को मूत लिख देना
सौन्दर्यबोध का स्खलन हो सकता है
मगर मैं जानता हूँ उसकी बदबू
किसी भी दूसरे शब्द में देर तक नहीं रुक सकती

उपमेय उपमान उपमाएं सब शिथिल हैं
मर्दानगी के तमाम उपक्रमों के बावजूद
ओखली में धान की तरह कुटे शब्द
नहीं रह गए हैं उगने लायक

तुम जब भी कहते हो मेहनत
बाज़ार एनर्जी ड्रिंक चमकाता है
तुम कहते हो घाम 
छतरियों के रंग बिखेर दिए जाते हैं
मैं जानता हूँ तुम्हारे संघर्ष और धूप  कहने में
कही जाती है पसीने की गंध और रोटी और इज्ज़त
मगर समझा जाता है डेऑड़रेन्ट और सनस्क्रीन लोशन
यह शब्दों से संवेदनाओं के निकल जाने का समय है
यह बाज़ार के विस्तार का समय है .      

5 comments:

  1. सुन्दर कविता | सार्थक लेखन

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  2. बड़ा ही भयावह यथार्थ चित्रण है!

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  3. सही में लतखोर टाइप समय चल रहा है।

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  4. अरिमर्दन सिंह गौरSun Mar 10, 09:59:00 PM 2013

    सचमुच लतख़ोर टाइप का समय है । संवेदनशील शब्दों की लात के आघात ने बाज़ार को उसकी औकात बता दी है ।

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  5. सचमुच ..ऐसे समय को आपने बेहद सार्थक शब्द दिये हैं । ओखली में कुटे धान जैसे ही ।

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