Wednesday, June 29, 2011

मुहब्बत कोई कैजुअल लीव नहीं

दुनिया को मुहब्बत का उपदेश देने वालो ,
तुम देहरी पर ठिठक कर लौट आए
और पीट दिया ढिंढोरा--
सब पा लिया आदि-अंत अनंत का !
उपलब्धि की कसौटी पर कसा और
लटका लिया पदक-सा गले में.

मुहब्बत कोई कैजुअल लीव नहीं
जो ली और फिल्म देख आये
या फिर पुराने किले की सुनसान ढलानों पर
घड़ी-दो घड़ी लेटे लौट आए
मुहब्बत हंसिये की मूठ पर चमकता पसीना है
जिसे जेठ  के तमतमाए  सूरज ने देखा
और खौफ खा गया.

मुहब्बत न राम की मर्यादा है
न लक्ष्मण की भ्रातृनिष्ठा
और न ही रघुकुल की तथाकथित रीति
मुहब्बत सीता की अग्निपरीक्षा है
अविश्वासी को जिसने युगों का बनवास दिया.

मुहब्बत अर्जुन का गांडीव नहीं
कृष्ण का सुदर्शन चक्र भी नहीं
मुहब्बत रथ का वह टूटा हुआ पहिया है
मान-मर्दन किया महारथियों का जिसने
युगों के लिए उन्हें श्रीहीन कर दिया .

मुहब्बत न यह धरती है न ये सरहदें
न गोलियां,  न टैंक,  न कंटीली बाड़ें 
मुहब्बत फौजी के उस बूढ़े बाप का कलेजा है
जो कहता है-- काश मेरा एक और बेटा होता !

मुहब्बत न गीता है, न बाइबिल, न कुरान
न मंदिर की आरती है न मस्जिद की अजान
मुहब्बत वह धूप है
जो दोनों की सहन में बराबर उतरती है
मुहब्बत वह हवा है
जो दोनों की धूल बराबर बुहारती है.

दुनिया को मुहब्बत का उपदेश देनेवालो !
मुहब्बत वह बारिश है
जो सबका रंग-रोगन धो देती है
और नंगा कर देती है
पाखण्ड के ढांचों को
देह की दीवार को
परम्पराओं को , किताबों को
सिद्धांत के खांचों को.


Friday, June 24, 2011

अपने बेटे की ओर से

तुमने कभी कहा नहीं
और मैं समझता रहा
तुम जानते ही नहीं
पिता, तुम्हारा मौन चुप्पी नहीं
यह रहा है स्वीकृति
मेरे बड़े होते जाने की
उम्र और समझदारी में
या शायद दुनियादारी में

पिता, तुम्हारे मौन को
अनदेखा करना नहीं कह सकता मैं
मैं नहीं कह सकता इसे तटस्थता
बर्फ की तरह निष्पंद और ठंडी
कठोर... जम जाने की हद तक.

पिता, मेरे बड़े होने में बड़ा हुआ है
कहीं कोई अंश तुम्हारा भी
मेरे बढ़ने जितना ही घटनापूर्ण है
मुझे बढ़ते देखकर तुम्हारा मौन रह जाना

पिता, जितना मैं समझ पाया हूँ
यह मौन सिर्फ मेरे-तुम्हारे बीच का नहीं
यह दो पीढ़ियों की थाती है
जिसे ढोना  हमेशा सलीब का ढोना नहीं होता 
हर बार अपने सामान के साथ
अनायास बांसुरी का रख जाना भी होता है

पिता, मुझे लगता है 
कि मैं समझता हूँ तुम्हारा मौन
पर हर बार एक अलग तरीके से . 


Saturday, June 18, 2011

आषाढ़स्य प्रथम दिवसे

बादल तुमको उपमाओं में
बाँधा हर युग , हर कवि ने
लेकिन क्या तुम बंध पाए हो
या क्या तुम बंध पाओगे
दूर समय की सीमाओं में ?
जाने क्यों लगता है ऐसा 
जैसे तुम आकाश नहीं
एक अंश हो मेरे मन का
हर पल जिसमें घुमड़ा करते
शक्तिवान सौ-सौ तूफान
हर पल बदला करते चेहरे
उमड़-घुमड़ लाखों विचार
मन फिर भी वही है रहता--
चिर एकाकी निर्विकार !

इतना गरजे, इतना बरसे
धरती का रंग बदल दिया
पौधों में जीवन सरसाया
सागर को कर दिया अपार
लेकिन क्या तुम छू पाए हो 
आसमान को एक निमिष भी ?
क्या अविरल धारा बूंदों की 
भिगो सकी है एक अंश भी ?
बादल! भटकोगे अनंत तक 
तो भी कुछ तुम पा न सकोगे
अंत समय जब लेखोगे तुम
जीवन भर के कर्म-अकर्म
निश्चय ही पाओगे सबका 
योग सिर्फ तुम एक सिफ़र !

इधर ढकोगे उधर खुलेगा 
इतना विस्तृत है आकाश .
आओ बैठो पल-दो पल हम 
कह लें- सुन लें अपनी-अपनी
फिर जाने कब मिलना होगा
फिर कब ऐसी धूप ढलेगी
फिर जाने कब रात की रानी 
इच्छाओं-सी हमें छलेगी
फिर जाने कब भोर का तारा
छू पाएँगे आँखों से
फिर जाने कब सो पाएँगे 
रजत-परी की  पांखों में
उजले-उजले दूध धुले-से
तुम , मैले मत हो जाना
इधर सरककर पास जरा-सा 
आओ बैठो घड़ी-दो घड़ी .
क्या कहते हो , देर हो रही ?
अरे, कहो, कहाँ जाओगे ?
कौन देखता राह तुम्हारी ?

मुझको जाना दूर यहाँ से
वहां जहाँ सब प्यासी ऑंखें
आसमान को ताक रही हैं 
ताल-तलैया-पोखर-सरवर
पनघट-पनघट झाँक रही हैं
मुझे भूमि के फटे कलेजे
पर मरहम का लेप लगाना
झाड़-झंखाड़ी  में उग आये
नीम-पीपलों को नहलाना
मुझे पाटने ताल-पोखरे
मुझे डुबोने बाग़-बगीचे
सुनो ,सुनाई देगा तुमको
होता है मेरा आवाहन---
'काठ-कठौती पीयर धोती
मेघा साले पानी दे'
नंग-धड़ंगे बच्चे भू पर
लोट रहे, जलपोट  रहे
नीचे जलती धरती ऊपर
डाल रहे गगरी से पानी .

जाना है, अब जाना मुझको
ले धरती की चूनर धानी
अगले फागुन आऊंगा मैं--
आस धराती पिय  की पाती---  
--- अभी सेठ कुछ दिक्कत में है
     अभी पगार नहीं मिली
     फिर भी मैं कुछ भेज रहा हूँ
     देखो, यह जो पैसे हैं ना
     मोहन के जूते ले देना
     कुछ बाबू को तम्बाकू के
     कुछ बनिए का पिछला दे देना 
     माँ की तिथि भी तो करनी है 
     मंदिर में सीधा दे आना
     अपनी तबियत का ध्यान रहे
     मत बहुत सबेरे उठा करो
     खाद डालनी होगी शायद
     अब तो निचली क्यारी में
     हाथ तंग है ले-लेना तुम 
     कुछ सामान उधारी में
     अगले फागुन आऊंगा मैं
     देखो कोई फिक्र न करना...

अरे , कहाँ मैं अटक गया
देखो कैसा भटक गया
जाना है, अब जाना मुझको
दूर आम के बागीचों में
आसन मारे जमे अल्हैते
थाप-थाप धम ढिम्म-ढिम्म
सब ताक रहे नभ सूनी आँखों .
रामलाल की लहुरी बेटी
टिकी बांस से मडवे  के
सर पियरी से ढंके हुए
मन में दुहराती है कजरी
फिर बीच-बीच में आंख उठाकर 
देख लिया करती है ऊपर---
जाने झूला पड़े- ना पड़े !

तुम कहते हो रुक जाऊं  मैं
जीवन-धन का जोड़ करूँ ! 
तिल-तिल जलकर पा न सकूँगा
जीवन में ऊँचा मुकाम !

रुक जाऊँगा, तुम कहते हो 
तो मैं निश्चित रुक जाऊँगा
यदि तुम मिटा सको दुनिया से 
अश्रु-निराशा-दुःख-वेदना,
यदि तुम बदल सको हर्फों को 
परदेशी के पत्रों के, 
यदि तुम झूले डाल सको हर
रामलाल की बेटी खातिर,
यदि तुम बदल सको स्वर भीगे 
ढोलों और अल्हैतों के !

रुक जाऊंगा, तुम कहते हो 
तो मैं निश्चित रुक जाऊंगा
हाँ, मैं निश्चित रुक जाऊंगा
जब भी वह दिन आ जाएगा
जाने वह दिन कब आएगा !
अभी जरा जल्दी में हूँ मैं  
अभी मित्र मैं चलता हूँ.



Tuesday, June 14, 2011

आँखें

स्वप्न भरी सपनीली आँखें
पिघला अंतस गीली आँखें

मन के भावों की दर्पण हैं
भाव भरी चमकीली आँखें

माँ के आँचल  की छाँव तले
वे खुले अधर गर्वीली आँखें

किसी राम का इंतज़ार है
राह  तकें   पथरीली आँखें

चौखट पर  अगवानी करतीं
शबनम-सी शर्मीली आँखें

फिर आँखों से बात करेंगी
अधरों  वाली नीली आँखें

शाम की दुल्हन गेसू खोले
मय के बिना नशीली आँखें

जिस्म अगर दरिया है तो फिर
लहर कोई लहरीली आँखें

टूट रहे संबंधों का युग
रिश्तों-सी बर्फीली आँखें

स्वप्न देखती हैं उधार के
भूखी-प्यासी-पीली आँखें




Friday, June 10, 2011

...बो दिए हैं

बो दिए हैं
इस बरस
बरसात से पहले कहीं
सबकी नज़र से दूर
छिछली पोखरी के पास
मैंने आम  के दो बीज

अंकुरित होंगे कभी जब
आँख खोलेगा अनंत
फूट निकलेगी नदी
अनजान ऊर्जा से भरी
जैसे कि फूटा मन
तुम्हारा साथ पाकर मीत

मन में उठ रही है बात
आधी रात
जब अठखेलियाँ करने लगा है चाँद
जल में पोखरी के
रह गयी है पास मेरे
प्रिय तुम्हारी चीज

आम का हो बीज
या कि प्रिय तुम्हारी चीज
दोनों ही मुझे करते
कहीं भीतर बहुत परिपूर्ण
जैसे भर गयी जल से लबालब
पोखरी बरसात में.