Friday, April 22, 2011

तुम्हारे बिन अकेला तो हूँ.......

अक्सर चुपचाप सांझ के धुंधलके में
जोर से लेता हूँ सांस
हवा की महक बता देती है
तुम्हे छुआ है उसने

एक-एक कर टूटते पत्ते 
गिरते हैं धरती के आँचल पर आहिस्ता 
रात कदम-दर-कदम  चलती 
आती है ओढ़े ख़ामोशी 
और मुझे कभी तुम दीखती हो 
कभी सूरज की बुझती-सी लाली

कभी लगता है चुपचाप छू लूँ सरकता दिन  
कभी चूम लूँ सूरज की ललछौही किरण
कभी खोल दूँ कसकता पुरातन मन 
अपने ही सामने एकाएक 
और अचकचा कर ले बैठूं तुम्हारा नाम 

किसी मस्जिद से उभरती अजान 
किसी मंदिर से फूटता आरती का स्वर
शायद तुम्हीं ने कुछ कहा है 
दिशाओं को सुनाकर.
दूर किसी घाटी से उठता धुआँ 
बढ़ता है ऊपर छूने आकाश 
या है मन का ही कोई नाज़ुक-सा ख्याल 
झरनों की कलकल -झरझर है या फिर 
उमगते मन का मासूम सवाल

मैं जान नहीं पाता
कुछ भी पहचान नहीं पाता
कुछ ऐसे ही जैसे
झप से गुजर जाए कोई उड़ता पाखी
झम से बिखर जाए कोई सांवला बादल
या फिर
आते-आते रह जाए होठों  पर
गीत गोविन्द की एक पंक्ति 

तुम्हारे बिन अकेला तो हूँ
पर तुम हो 
कहीं  दूर ही सही , एहसास भी है .




6 comments:

  1. आरम्भ की पंक्तियों ने जैसे पूरी कविता पर एक मखमली चादर डाल दी.. लगा ही नहीं कि यह विरह का चित्रण है या प्रकृति की सुंदरता का.. या कहीं विरह में प्रकृति के रंग भर दिए हैं..

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  2. विरह विधाता ने रचा जब
    स्मृति रचने में क्या चातुरी थी ?

    किस की है ये बात याद नही…

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  3. तुम्हारे बिन अकेला तो हूँ
    पर तुम हो

    तलत अजीज़ की गाई एक गज़ल कानों में गूँज रही है -
    सुकून-ए-दिल के लिये
    राहत-ए-जिगर के लिये,
    तेरा ख्याल ही काफ़ी है
    उम्र भर के लिये.

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  4. तुम हो , कही दूर ही सही
    एहसास तो है ...

    बेहद खूबसूरत एहसास!

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