Monday, May 31, 2010

सुनो अनु

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सुनो अनु!
ऐसा क्यों होता है
तुम अपने लिए चुनती हो दिन
और रात मेरे हिस्से आती है .

एक अलसाई सुबह
तुमने चुना था प्रेम
मैं बेचैन हो उठा.

एक खड़ी दोपहर
तुमने चुना यथार्थ
मैं दिग्भ्रांत हो उठा.

फिर, आज इस ऊदी शाम
तुमने चुना है जीवन
मैं पथरा  रहा हूँ.

सुनो अनु !
यह समर्पण , समझौता या सदाशयता नहीं
चयन का अधिकार है तुम्हारा
जिसे स्वीकार मैं करता हूँ .

Sunday, May 30, 2010

एक प्रेमगीत

देह बांची नित्य मैंने वेदमंत्रों की तरह पर
उपनिषद के ब्रह्म-सी तुम दूर ही होती रहीं 
मैं अर्थ की गहराइयों से शब्द की सीमा तलक
भटका किया हर रोज लेकिन तुम सदा खोती रहीं.
                          देह ने जाना मगर बस देह को
                          संदेह ने जाना मगर संदेह को
                         यूँ तो हथेली भीग आयी नाम भर से
                         किन्तु जाना स्नेह ने ना स्नेह को
उम्र बीती मन से मन को जान पाने की ललक में
साँस , गति, पहचान , कोशिश व्यर्थ सब होती रहीं. 

Thursday, May 27, 2010

औरतों के लिए एक ऋचा, पुरुषों की ओर से

तुमने कब कहा मुझसे
तुमको चाँद चाहिए

तब तो  नहीं, जब
अंजलि में जल ले  मैंने कहा-
कुछ भी मांग लो , मिलेगा .
तब तो तुमने यूँ  ही नचाये
हीरे की कनी-से नैन
पलकें झपकाईं
और मेरे हाथ का जल ले लिया ,
शीश पर चढ़ाया , कहा ---
मैं संकल्प हूँ ,
तुमने किया है ,
कहो, किसको दोगे !

मैंने कहा -- समय को देता हूँ,
मैं तुम्हें समय को देता हूँ .

आज बरसों बाद
समय के पीछे चलते एकाकी
तुम्हें देखता हूँ--
तुम्हारे हाथों में चाँद है
छोटा-सा, नन्हा-सा, रुई के फाये-सा
बंद मुट्ठियों में समय बांधे.

सोचता हूँ
तुमने कब  कहा
तुमको चाँद चाहिए....
..या...शायद ...कहा था
जब मौन ने बोलना नहीं सीखा था
और अलकें अभी संकल्प-जल भीगी हुई थीं ,
तुम देवी हो-- मैंने कहा था ,
तुम शक्ति हो , धरा हो ,
धारा हो करुणा की ,
स्नेह हो, पवित्रता हो--
यह सब मैंने कहा था.
और तब
 हाँ, शायद तभी
तुमने कहा था --
मुझे चाँद चाहिए
मेरा अपना निजी चाँद.

      

Sunday, May 16, 2010

हाशिया

अभी जितना कहा है
और उससे भी कम जितना लिखा है
और छोड़ दिया है
शब्द, वाक्य, अर्थ की पोटलियों में
इधर-उधर
मेज-किताब-अख़बार
सब कहीं भटकने के लिए
उससे कहीं ज्यादा- बहुत ज्यादा
रह गया है
टकने से-
किसी कमीज़ पर बटन बन,
छलकने से-
पवित्र अर्घ्य-सा अंजुरी से,
दहकने से-
भूख या प्यास की तरह
या फिर कसकने से-
हृदय के किसी अज्ञात अतल में.

हाशिया छोटा ही सही
बदल सकता है
पन्ने की इबारत
पूरी-की-पूरी
बिना दावा किये ,
दे सकता है
अर्थहीन को अर्थ
या अनर्थ.

वस्तुतः
जो कुछ भी रह गया है
कहीं कुछ होने से
मेरी ही तरह हाशिये  पर है.

   

Saturday, May 15, 2010

कलफ़ लगी औरतें

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कलफ लगी साड़ियाँ
सरसराती हैं नफासत से
उठते-बैठते-चलते ;
तुडती-मुडती-सिकुड़ती हैं
मोड़-दर-मोड़
भीतर-बाहर हर ओर .

अक्सर निकाली  जाती हैं
इस्तिरी -बेइस्तिरी  
पार्टियों-मेलों-सम्मेलनों में
रेडीमेड का लेबल लगाकर .

कलफ लगी साड़ियाँ
तकिये के नीचे नहीं तहातीं
पाजामे, गमछे या लुंगी की बगल में
कलफ लगी साड़ियाँ
हैंगर में टंगती हैं
कोट, पैंट , टाई के बराबर
टाईट .... एकदम कड़क .

कलफ लगी साड़ियाँ
अक्सर खुद नहीं जान पातीं
बढती सलवटें
दिन-महीने-साल
जो बनाते हैं उनपर .
वे तलाशती हैं नए हैंगर
नए सिरे से लटकने के लिए
हर बार.... आखिरी बार !

कलफ लगी साड़ियाँ
पोंछा नहीं बनतीं
टूट जाती हैं अक्सर
तार.........तार.......
कलफ टूटते - न टूटते .
 

Sunday, May 9, 2010

लाल सूरज

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तुम देहरी पर दीप रखो- न रखो
अँधेरा घिरेगा ही
सघन या विरल ,
सपने छीजने लगें तो यही होता है--
रात बांसुरी नहीं बजाती ,
चाँद बच्चे नहीं बहलाता ,
सितारे जंगल में भेज देते हैं
भटके हुए बटोही को
और मूर्तियाँ मुस्कराने लगती हैं
श्रद्धावनत मस्तकों की मूर्खता पर.
आस्था का संकट
चरणामृत बाँटने से नहीं मिटता .

गिरने दो कलश
धूल- धूसरित हों कंगूरे
कालजयी महलों   को पता तो चले
समय के बदल जाने का.

धक्का दो
धराशायी हों वटवृक्ष;
डालियाँ काटो
तने को चीरो
पोर-पोर खंगालो
बाकी न रहे कोई कोना
ढूंढो  एक स्वस्थ बीज
और रोप दो वहीँ;
फिर प्रतीक्षा करो
सपनों के अंकुरित होने की .

सूर्य रक्त वर्ण होता है
रौशनी फूटती है
सूर्य रक्तवर्ण होता है
रात हो जाती है
नया युग चुप-चाप नहीं आता  .
 

Sunday, May 2, 2010

यह मठ और गढ़ अब नहीं टूटेंगे

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यह मठ और गढ़ अब नहीं टूटेंगे
इसलिए नहीं कि
और मजबूत हो गयी हैं दीवारें
या कि और गहरी हो गयी है इनकी  नींव
बल्कि इसलिए,
मात्र इसलिए कि
बेसुरे बांसों क़ी चरमराहट हकला उठी है,
कामसूत्र क़ी पोथियाँ 
एडम स्मिथ क़ी अलमारियों से निकलकर 
खेत-खलिहानों में फडफडा रही हैं
विभिन्न मुद्राओं में
और कुदालों क़ी प्रतिबद्धता जंग खा गयी है. 

बिल्ली लाल हो या काली 
चालाक हो गयी है,
अब मलाई खाती है
और चूहों का व्यापार  करती है.

दीमक लगे चरखे से खेलते हैं
कुछ खाकी चूहे
और बिल्ली टकटकी बांधे खड़ी  है
होंठ चाटती.
घुनी हुई लाठी एक कोने में पड़ी है .

पथराये रहनुमा सिर ताने शान से 
कव्वे और कबूतर हगाते
चौराहों पर खड़े हैं 
और वह
जिसे तोड़ने हैं मठ और गढ़ 
चरणामृत  पीकर बेहोश पड़ा है. 

इसीलिए कहता हूँ---
यह मठ और गढ़ अब नहीं टूटेंगे.